चौबिस घंटा, बार महीना, जीवन में जीना दर जीना
पढ़े पहाड़े, रट कर झाड़े
बड़ी किताबों पर सर फाड़े
लड़के मौसम, दिन जगराते
कहाँ पता, कब आते जाते
खेल कूद कम, मन भुस मारे, पिच्चर थेटर ढांक बुहारे
खर्चे पर्चों में कल सारे, मेरु दंड कर भर कस सीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कूप जगत से नीचे नीचे
बूड़े पहिरे ,बूझे पीछे
धूप नसेनी पकड़, गगन मुख
किस छत धाए मन, तन रुक रुक
फेर घटा कर सौ से एक कम, कम लगता जो मिलता हरदम
काक दृष्टि को चोटी परचम, खदबद मानुस, धार पसीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कब उबरे कब, उठकर जागे
मृग माया छुट, सरपट भागे
बस कर कहकर, छोड़ छाड़ कर
जंगल चाहत, आर पार कर
रेत भरी मुट्ठी बह जाए, समय अजब झांकी कह जाए
भरे भंवर में रह सह जाए, बचता खोता ख़ाक सफ़ीना
[जीवन में जीना दर जीना]
[,,बाबा ढूंढ ढूंढ थक जाता, चालिस चोरों में मरजीना.. ]
आख़िरी पंक्ति बीवी को चिढाने के लिए
9 comments:
क्या कहूं...
सूफ़ियाना कलाम है। जी करता है गाने लगूं। रात बीत रही है और मन के उचाट को आपकी पंक्तियों ने बांध लिया है।
कबीर जो आज होते तो मुक्तछंद में यूं ही लिखते जो लिखा आपने।
मनीष भाई, आपके मुरीद हैं...काश, आप जैसा लिख पाता में, यूं कर पाता अभिव्यक्त खुद को कि उड़ा उड़ा फिरता अपने भीतर के गगन में। जिसने भीतर का आसमां नहीं तलाशा, वो क्या कविताई करेगा। कविता के नाम पर कनस्तर में कंकर बजाएगा।
मनीष भाई की जै हो। हम तो आपकी उड़ान देखते हैं जो कम नसीब होती है।
खुश रहें...आपका
अजित
I like the बघेली प्रभाव and this 'almost real'thought : फेर घटा कर सौ से एक कम, कम लगता जो मिलता हरदम
काक दृष्टि को चोटी परचम, खदबद मानुस, धार पसीना
Life almost always makes good poems.
जीवन में जीना दर जीना
जीवन की उधेड़बुन का नगाड़ा, गाकर सुना दिया।
उठा-पटक जीवन की झांक रही …
"धूप नसेनी पकड़, गगन मुख
किस छत धाए मन, तन रुक रुक"
बाकी ये सूरजमुखी का रंग चश्मे का नंबर बढ़वा देगा :)
आपकी दु:खकथा होगी कि बड़ी किताबों के आगे सिर फाड़ते फिर. बड़ी किताबों के आगे खड़े दहाड़े भी तो हो सकता था?
लेकिन ये छोटी ईकार वाली चौबिस तो इस तरह से बड़ी सर्बर्सिव सी हुई गई..
लेकिन जीवन में जीना दर जीना कैसा तो सरस, उलझा पाठ सा जीना हुआ फिर?
jnaab kvitaa to bilkul hrimirch ke trh tikhi he .khtar khan akela kota rajsthan
लय में पढने वाली कविता है... पूरी कक्षा एक साथ पढ़े उस टाइप की.
वाह सर...आने में फिर देर कर गया। सचमुच बेमिसाल लय है।
इस बार आपने लगता पारुल की आंखों का ख्याल रखा :)
कविता के बारे मे क्या कहूं..आपका शब्द-चयन ही कविता की लोकगीतात्मक आत्मा का प्रतिबिम्ब बनता है..
खेल कूद कम, मन भुस मारे, पिच्चर थेटर ढांक बुहारे
खर्चे पर्चों में कल सारे, मेरु दंड कर भर कस सीना
यकीनन इतनी प्रखर शब्द-समिधा किसी को भी दगध कर सकती है..और हमारे जैसे दरिद्रों के लिये ईर्ष्या की वस्तु भी..
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