पक्का नहीं कहता कि सब, सांसत से लड़ लड़ता हूँ मैं
हम कदम इक दम मिला, दुइ पाँव चल चलता हूँ मैं
उजड़ें दीवारें खँडहर, छातें हों ख्वाहिश बरस भर
आसमां तू उड़ भी जा, पर-छाँव चिन चिनता हूँ मैं
कुछ व्यर्थ हों, कुछ अर्थ हों, जेवर जवाहर जर नहीं
दो कौड़ियों के एकवचन, बहु दांव धर धरता हूँ मैं
तन-धन छंटा, मन-घन घटा, घटते घटी तारीख कम
मानस उमस बचता गया, जिउ ताव तप तपता हूँ मैं
तट कट बहें मझधार पर, पर संग रहो तुम धार पर
अविरल तुम्हीं को देख कर, हर घाव सह सहता हूँ मैं
धमनी में धर धूधुर-धुआं, माया के छाया जाल मथ
इतना बिलोकर तुम जहां, उस गाँव बस बसता हूँ मैं
5 comments:
सुन्दर !
'बिलोकर' माने?
कुछ व्यर्थ हों, कुछ अर्थ हों, जेवर जवाहर जर नहीं
दो कौड़ियों के एकवचन, बहु दांव धर धरता हूँ मैं
wah......
बहुत ही अच्छी कविता।
तट कट बहें मझधार पर, पर संग रहो तुम धार पर
अविरल तुम्हीं को देख कर, हर घाव सह सहता हूँ मैं
Bahut Khub...Har sher khoobsoorat...
बहुत अच्छी रचना
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
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