Sep 30, 2012

पूरा नहीं उदास

 ....

ये  जो  धूप-छाँह  कयास है
और  न  डूबने का प्रयास है

जैसी  आस-पास धमक-चमक
वैसी   आस  मन के पास है

चंद  गुल मोहर  की बाज़ियाँ
बंद  पत्तों का अमल तास है 

सब  रेत  रेत  दयार  भर
बस  रहे के  नाम प्यास है

चार गमले बसा के छज्जों में
सब्ज़ आदिम खुशी  बनास है

कब  गुज़र गई मीठी  छनी
कब  बदल  बनी  खटास है

अब  जो भी है बड़ा सा है
या  विष है या  विश्वास है

यों  गज़ल  नुमा मरीचिका 
छंद  भाग बन का वास है

चलो  टूटते  तारे  से  ही
इस  रात  की  उजास  है


7 comments:

Arvind Mishra said...

कुछ तो हो नीरवता भंग करने को -टूटते तारे ही सही -
वाह !

प्रवीण पाण्डेय said...

कहीं कुछ घट रहा है..

Rangnath Singh said...

बढ़िया...छोटी बहर में लिखना यूँ भी दुश्वार होता है...

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा said...

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अजित वडनेरकर said...

ये बुनावटें, ये बारीकियाँ
ये तो रेशमी अहसास है
कभी मैं भी आप सा लिख सकूँ
मेरे ख़्वाब में भी उसाँस है

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान said...

chalo tootte tare se hi ....

Apanatva said...

अब जो भी है बड़ा सा है
या विष है या विश्वास है
bahut khoob..