Nov 26, 2007

शायद खुश

नींद को रात न मिली, गुम गुम सी हुई
भोर की बात मिली, तो बेहतर थे

सूखते एक किनारे से किनारा कर, कर
मोटी बरसात चली, तो बेहतर थे

बागी़ तक़दीर के बोसे, मौसम नम, नम
हंसी की फांक जली तो बेहतर थे

बकौल हाशिये से , सिफ़र के अगल, बगल
गीली बारात ढली, तो बेहतर थे

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

बकौल हाशिये से , सिफर के अगल, बगल
गीली बारात ढली, तो बेहतर थे
क्या बात है..... जय हो.
नीरज