अथ
मौन की बड़ी ई... ई..... लम्बी उम्र,
नापती रही पटरियों के खुमार;
और चुप की आँखें सजीलीं,
ताकतीं रहीं देहरी दुआर;
गाँठ को बांधकर, याद सो तोलती रही / मद्धम;
होंठ से झेंपकर, नींद में बोलती रही/ सरगम;
सकपकाए शब्दों को, पीती रही / रोशनाई;
भूल गई , झूल गई , रीती भई / अंगडाई;
कभी -कहीं मिले नहीं,
कृष्ण, करुण , स्मृति बुहार ;
कहीं -कभी छूट पाए,
शेष प्रश्न, स्वर , सिंगार ;
पतझड़ के भूरे से, पात के अधूरे में / बांधे ;
रात चढी सांसों से, गर्म नर्म बातों में / आधे ;
उँगलियों की झिरी से, जाले से देखा / मुस्कुराये;
अटपटे संवाद चढ़े , फले, महके /हिचकिचाए ;
टिकटिकी निहारों में,
आज फिर, अनेक बार ;
शर्म के कगारों में,
तोल, मोल, जोड़ प्यार;
इति
3 comments:
आप बहुत सुंदर लिखते हैं।
जो शब्द हाथ से छूट गये शायद आजकल यहाँ बसते हैं...जिन्हे पकड़ कर रखा है....अंदाज़ा है और सुंदर हैं।
कभी -कहीं मिले नहीं,
कृष्ण, करुण , स्मृति बुहार ;
कहीं -कभी छूट पाए,
शेष प्रश्न, स्वर , सिंगार ;
इतने सुंदर शब्द किसी तारीफ के मोहताज नहीं. इसलिए कुछ नहीं कहता सिर्फ़ आँख बंद कर महसूस कर रहा हूँ.
नीरज
मौन की बड़ी ई... ई..... लम्बी उम्र,
नापती रही पटरियों के खुमार; .............अहा सुंदर :)
सकपकाए शब्दों को, पीती रही / रोशनाई;
भूल गई , झूल गई , रीती भई / अंगडाई;............. सहज सम्वाद :)
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर :)
शुभकामनायें आदरणीय मनीष जी
सादर गीतिका 'वेदिका'
Post a Comment