Dec 14, 2007

बैनीआहपीनाला - एक नहीं दो दो

[ बचपन में इन्द्रधनुष के रंग रटने का यही फार्मूला होता था - जब तक अंग्रेजी माध्यम नहीं शुरू किया था ]

बैरंग चिट्ठी के कमज़ोर टिकट,

नी की टहनी के बगल बनफूल गए।
हट टटोलते, सरपट में बोलते,
ठीले, पिनकते, बाँहों में झूल गए।
पी-पीस घोंटें, बहानों की चाशनी,
ना-नुकुर के कामों को, मांगों में भूल गए।
लाले लफंदर, छुटके खेलें गुडिया, जब बड़के स्कूल गए।


(किसलय -१० और कार्तिक - ३ के लिए )

3 comments:

Unknown said...

क्या ख़ूब !! धन्यवाद इन्द्रधनुशी कविता का !

नीरज गोस्वामी said...

किसलय और कार्तिक शतायु हों और ये सारे रंग उनके जीवन में हमेशा फैले रहें,ये ही आशीर्वाद है.
नीरज

DUSHYANT said...

वाह लिखते रहें लिखने में ही गति है , शुभकामनाएं