[ बचपन में इन्द्रधनुष के रंग रटने का यही फार्मूला होता था - जब तक अंग्रेजी माध्यम नहीं शुरू किया था ]
बैरंग चिट्ठी के कमज़ोर टिकट,
नीम की टहनी के बगल बनफूल गए।
आहट टटोलते, सरपट में बोलते,
हठीले, पिनकते, बाँहों में झूल गए।
पीस-पीस घोंटें, बहानों की चाशनी,
ना-नुकुर के कामों को, मांगों में भूल गए।
लाले लफंदर, छुटके खेलें गुडिया, जब बड़के स्कूल गए।
(किसलय -१० और कार्तिक - ३ के लिए )
3 comments:
क्या ख़ूब !! धन्यवाद इन्द्रधनुशी कविता का !
किसलय और कार्तिक शतायु हों और ये सारे रंग उनके जीवन में हमेशा फैले रहें,ये ही आशीर्वाद है.
नीरज
वाह लिखते रहें लिखने में ही गति है , शुभकामनाएं
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