अजनबी हम तुम कहीं, अपने जनम पिछले, मिले होंगे कसम से
हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से
कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे
क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से
फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें, रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से
मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन दलदलों को पाट के, जागी दुकानों में सने, छिन पल गरम से
उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से
और भी बातें बचीं, हों और किस दिन, सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से
6 comments:
आपकी ग़ज़ल सुंदर है.
प्यारे भाई,
किस किस शेर/पंक्ति पर दाद दूँ ?
हमेशा की तरह बेहतरीन अभिव्यक्ति। जादू है, तिलिस्म है आपके पास। कच्चे जादूगर सिर्फ़ शब्दों के जाल में उलझाते हैं मगर आपका तिलिस्म शब्दों के साथ भावों का जो सृजन करता है उसे बूझने का आनंद अलग से इंद्रजाल का मज़ा देता है।
मैने आज तक किसी को अपना प्रिय कवि नहीं कहा। अच्छा हुआ, किसी को हटाकर उसकी जगह दूसरे को स्थापित करने की हिचक से बच गया।
भाई, वो अब आप ही हैं।
बहुत शुभकामनाएं।
कहूँ क्या, पर मजा आ गया, कसम से।
......अजी आ गया मज़ा हमको सच्ची धरम से !
"हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से"
सर आपकी लाजवाब लेखनी, बंदिशों की निर्बाध गति, और शब्दों के बियाबान से गुजरकर खुद की क्षुद्रता पर अकसर शर्मिंदा होना पड़ता है, फिर तो कमेंट के लिए बेशर्मी ही सहारा बनती है। :)
आपको सपरिवार विजय दशमी की ढेरों शुभकामनाएं..
संदीप
मेरी लाइन मुनीश ने पहले ही चुराकर चेप दी है. बेधरमी से ही चेपी है.
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