लिखना शुरू करता हूँ कि....
"कांच के कोठरे में पत्थरों का ढेर, मैं हूँ या मेरा भ्रम;
कौन देखता रहता है, इन किर्चों के जुडे रहने का क्रम;
आज बर्फ पिघलते - कैसे बहेगा नद .... भीम या मद्धम ? "
फिर रूक जाता हूँ और उचक कर धूसरित खिड़की के दूसरी ओर का जमा खर्च नापने में जुटता हूँ। पहले आवारापन को चलाने... बकौल ...
एक अदद घर है । घर की बाहरी दीवार है । दीवार के पार गड्ढे वाली सड़क के पार लटका पुराना छज्जा है, नाई की दुकान के ऊपर, जिसकी ईंटें मटमैली काईयों के अंग लगी हैं। बिजली के तारों और पतंग के मंझों और मकडी के जालों और कौवे के जुगाडे तिनकों की संवेदनाओं में उलझा स्तंभ छज्जे के बायीं तरफ अभी भी बरकरार है , हालांकी पिछली बारिश ने उसे हल्का उम्रदराज़ और बना छोडा है। झूलता सा है ज्योंकि पैरका कंक्रीट कीचड से हिल गया है - लगता है बगल की पुरानी नीम पे अब गिरा तो तब गिरा । लेकिन गिरेगा नहीं और मोहल्ले भर के केबल के तारों के जंजाल को समेटे रहेगा और सुनता रहेगा हार्मुनियाँ की दुकान से निकलता दर्द -ऐ - डिस्को या जो भी ताजा तरीन हित गीत है - जब तक कि तमाम सड़क गीत के आलाप से त्रस्त हो जाये और गीत अपनी पायदान दर पायदान ढुलक कर अगले को मौका दे ही दे ।
पुरानी नीम कि निम्बौलियाँ हर साल की तरह खम्भे के पैरों में गिरेंगी और मुँह अँधेरे गली के शोहदे नीम की टहनियों के जोड़ भी तोड़ेंगे और फिर दातूनी आजमाईश करने के बाद चाय कि दुकान में बैठ कर ताजी अफवाहों का बाज़ार गर्म भी करेंगे । छज्जे की पीठ पार जहाँ मेरी नज़र नहीं जाती वहाँ की न तो मिट्टी दिखती है और न ही धूल । ............
तमाम हो चुकी / हुई थी पुरानी बातों की तरह यह भी एक सपना है , कल्पना है, कांच का कोठार या पत्थरों का अम्बार - लेकिन जो ज़माना ऐसा सच था, वैसा बसर था, अभी, इस जमात तक पहुँचते पहुँचते उसके बडे-सारे किरदार तो मर खप गए, वो जहाँ के थे वहां कस्बा बढ़ कर शहर में घुल गया, उस कस्बे के सतरंगी रिक्शा बदले काले पीले ऑटो / टेंपो में, चौराहे के सफ़ेद वर्दी वाले पुलिसियों की जगह आ गयीं लाल बत्तियों में, कम्पोसिटर हो गए कंप्यूटर, खड़ंजे डामर खा कर सडकों में बदले क्यूंकि नगरपालिका का विकास नगरनिगम के नाम से हुआ, कुछ पार्षद बने विधायक, थोडे विधायक तब्दील हुए मंत्रियों में, लाल, नीली बत्तियों की गाडियाँ बढ़ी, फली, फूली ।
समय दूसरा है सदी दूसरी है, कुल मिला के सिवाय पटवारी और मुंशी के, गुणा भाग एकदम दूसरा है।
दुनिया पार कर दौड़ते, समय के एक कदम पीछे कदम सम्हालने में अपनी इकहरी कमर में दोतहे बल पड़े, बालों में छ्टान - घटान और उनकी सफेदी में जुड़े जोड़ । क्या जोडा - चार दीवारें - दीवारों में सीलन वाली पपड़ी, किताबे और ढेर सारा चाय पीने का सामान । रंग वाले एल्बम में पीले पड़ते लम्हें , (अब ) दैनंदिनी के नए सन्सकरण और निजी, व्यक्तिगत भ्रम, सवालों के अम्बार और जवाबों के पुलिंदे ।
पिछली कलम की सियाही बहुत धुंधली है और इस कीबोर्ड की चमक तेज है। फिर भी मैं अपने भरम का मालिक, समझता हूँ, कि कभी कभी जो नहीं है उसकी सोच का लुत्फ़ है तो सही। माने रोज़ के बही - खाते से तंग दिमाग को कहीं सैर पर ले जा कर बहलाना फुसलाना वगैरह वहैरह। बशर्ते नए - पुराने की बहस अपने आप से चालू न की जाये। दिमाग का बायाँ हिस्सा पुराने की वकालत करे और दायां हिस्सा नए की और आपका मुँह बगैर बोले होंठ हिलाये और बीवी परेशान हो जाये कि पतिदेव का स्वलाप किसी अंदरूनी नए ज़माने की दीमागी बीमारी का इशारा तो नहीं ।
हज़ार बार कोशिश करे कि ऐसा न हो फिर भी होता है - मानो न मानो अपने आपसे वाद विवाद का गुल्ली डंडा अकेले बैठके खेलने का खेल तो है वैसे ही जैसे अपने भरम की गरमी को समेटे जिलाये रखना । और फ़िर पूछना अपने आपसे सवाल - एक नहीं अनेक - और शुरू करना सम वेदना से विषम वेदना के बीच अंगुली से बटन दबाना -
कह दे माँ क्या देखूं ?
केंचुल उतरने का समय है क्या ?
एक सांस के पीछे की सांस में कितना स्टेमिना बचा है ?
दुनिया गोल ही है न ?
क्या वहां भी बुलडोज़र चलने शुरू हो गए होंगे ?
कौन कहता है कि यहाँ सड़कें तेज भागती हैं ( उम्र भी ?)
सच्ची कि पुराने शहर के इतिहास का एक छोर पुनः प्रगति को समर्पित होने के लिए आतुर है ?
क्या किसी और के पास भी उन यादों का पलस्तर रुका है ?
भ्रम मेरी कमजोरी है या आदत ?
डर मेरी मज़बूरी है या नशा ?
खाकी, नीला , हरा या नारंगी ?
ताक़त, शोहरत या सुकून ? (सच में क्या ? )
खिचडी में रंग कौनसा ?
भूख की कितनी उमर?
किसका कितना मोतियाबिंद ? और... और ... और .. ??
पहला पहले भ्रम के नाम, दूसरा डर के लिए, तीसरा अगले सोच की आनेवाली आज़ादी को और चौथा उन सभी को जो मेरी संवेदनाओं से थोडे़से जुड़ते हैं - स्वागत
"एक कबूतर चिट्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा, मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा" (श्री दुष्यंत कुमार की "साये में धूप" से )
Nov 19, 2007
स्वागत / एक, दो, तीन चार
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पहले भ्रम के नाम
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पहले निंदा कर लेते हैं फिर स्तुतिः 1. हो सकता है पहला ब्लॉग है इसलिए इतना सारा नजला इकट्ठा झड़ रहा हो, पर ये कुछ ज्यादा फास्ट है इसलिए आतंकित करता है. पर जब वाक्यों को देखो तो गजब का दृश्यांकन है. आपके जीनियस होने के बारे में संदेह नहीं, पर पढ़ने वाले थोड़ा और सरलीकृत प्रारूप चाहेंगे. 2. शायद इसलिए भी कि हिंदी को रिक्लेम करना या फिर लिखे जाने की उत्कंठा के कारण ऐसा हो रहा है. 3. मुझे ऐसा लगता है जैसे एक शास्त्रीय राग को थोड़ा फास्ट फॉरवर्ड करके सुनाया जा रहा है. थोड़ा स्थिर चित्त होकर, थोड़ा सरल, सहज और पूरी बाल्टी उलटने की जगह एक धार बांध कर.
अब स्तुतिः आपको शायद अंदाजा हो कि आप नहीं लिख कर किस कदर अन्याय कर रहे हैं. बतौर पत्रकार मैं देखता हूं कि आप जैसे लोग क्योंकि पास कह देते हैं इसलिए हिंदी इतनी साक्षर और अशिक्षित लोगों की भाषा बन कर रह गई है. इसलिए आपकी शिरकत जरूरी है. ये कितने गज़ब की बातें हैं-
लेकिन गिरेगा नहीं और मोहल्ले भर के केबल के तारों के जंजाल को समेटे रहेगा और सुनता रहेगा हार्मुनियाँ की दुकान से निकलता दर्द -ऐ - डिस्को या जो भी ताजा तरीन हित गीत है - जब तक कि तमाम सड़क गीत के आलाप से त्रस्त हो जाये और गीत अपनी पायदान दर पायदान ढुलक कर अगले को मौका दे ही दे ।पुरानी नीम कि निम्बौलियाँ हर साल की तरह खम्भे के पैरों में गिरेंगी और मुँह अँधेरे गली के शोहदे नीम की टहनियों के जोड़ भी तोड़ेंगे और फिर दातूनी आजमाईश करने के बाद चाय कि दुकान में बैठ कर ताजी अफवाहों का बाज़ार गर्म भी करेंगे ।
और ये भी
रंग वाले एल्बम में पीले पड़ते लम्हें , (अब ) दैनंदिनी के नए सन्सकरण और निजी, व्यक्तिगत भ्रम, सवालों के अम्बार और जवाबों के पुलिंदे । पिछली कलम की सियाही बहुत धुंधली है और इस कीबोर्ड की चमक तेज है। फिर भी मैं अपने भरम का मालिक, समझता हूँ, कि कभी कभी जो नहीं है उसकी सोच का लुत्फ़ है तो सही। माने रोज़ के बही - खाते से तंग दिमाग को कहीं सैर पर ले जा कर बहलाना फुसलाना वगैरह वहैरह।
बढ़िया है सर जी. हिंदी को आपसे बहुत काम है.आपका मेल आईडी क्या है.
आगे फिर.... लिखिएगा भी.
हतप्रभ हूँ...ओर खामोश भी ..इस रौ में डूब जो गया हूँ...बेमिसाल ...कहना काफी नहीं है ..पर फ़िलहाल यही कह रहा हूँ
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