Apr 28, 2011

संगत राशि


पक्का नहीं कहता  कि सब, सांसत से लड़ लड़ता हूँ मैं
हम कदम इक दम  मिला, दुइ  पाँव  चल चलता हूँ मैं

उजड़ें   दीवारें  खँडहर,  छातें  हों   ख्वाहिश  बरस  भर
आसमां  तू  उड़  भी  जा, पर-छाँव  चिन  चिनता हूँ  मैं

कुछ  व्यर्थ हों,  कुछ  अर्थ हों,  जेवर  जवाहर  जर नहीं
दो  कौड़ियों  के  एकवचन, बहु  दांव  धर  धरता  हूँ मैं

तन-धन  छंटा,  मन-घन  घटा, घटते  घटी तारीख कम
मानस  उमस  बचता  गया,  जिउ ताव तप तपता हूँ मैं

तट  कट  बहें  मझधार  पर,  पर  संग  रहो तुम धार पर
अविरल  तुम्हीं  को  देख  कर, हर घाव सह सहता हूँ मैं

धमनी  में  धर  धूधुर-धुआं,  माया  के  छाया जाल  मथ
इतना  बिलोकर  तुम  जहां,  उस गाँव  बस  बसता हूँ मैं

Apr 21, 2011

इतने दिनों के बाद रात ...

बात सपनों की  ये  बारात,  रात  जग अफ़सरी  जगमगाई  है
कुछ  हैं  ख़्वाबों  से  बदर,  उधर  जल  जलपरी  नींद  आई  है

जीव की  जान  गड़ी हूक,   मूक  में  गुमशुदा  ख़्वाबों की भूख
जबर  ये  भूख  है  शाइस्ता,  आहिस्ता   ये  हूक  भी  सौदाई है

ये थके हाथ उफ़ थके पैर,  गैर  के  द्वार  थके जज़्बात की सैर
थकी सिलवट है खुली आँख,   झाँक  कहती  वो  सुबह छाई है

यूं कैसे मान लूं बयानात,  हालात कि ढल चली  है  महल रात
फकत क़ानून के तहत, तखत बताए  किस पाए पे सुनवाई है

देख ली  नाम  से  निकली,  वली  बड़ों  की  यूं नीयत छिछली
ये  ताकत है ता क़यामत,  नियामत है कमज़ोर में अच्छाई है

कौन  अच्छा है  क्या  बुरा,  चुरा  सुकूं  अगर वो चारागर चरा
ये हो न हो  नहीं खबर,  गर जो  खुद से जीत लें  लड़ी लड़ाई है

जिन्हें इस इल्म का इरफ़ान, फ़रमान पे जिनके मुरीद कुर्बान
क्या  उन्हें  इल्म है  गाफ़िल, हासिल  ये जो इल्म में रुस्वाई है

कभी  पहले  भी  थे  यहाँ  जवां, जुबां के दायरे हसरत के मकां
वो   भर तारीख  में  नहीं,  यहीं  महफ़िल  में आलमे तन्हाई है

भूल जा  भूलते जाना,  माना सर न  सहारा  है  भरम  ज़माना
रेत शहतीर में है  चाह है गुम,  तुम-हम के  टेक  हैं  परछाई है

भूल कर फिर से  मैं जो  याद करूं,  भरूं जो याद की भरपाई है
रात गुम ख्वाब है  बातों की बात,  बात रंग स्याह से रंगवाई है

Feb 10, 2011

आदतन

ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर
अगर वैसा किया होता, किया जैसा नहीं तब पर मगर
जो हो नहीं पाया, उसी पर दिया-बाती सोचना
अवधारणा की ताक से मन कोंचना, भर पोंछना
फिरकी कवायद है, गए जाए की चुप आलोचना
पर है सनद में ठस कि ज्यों - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

अगर जो उन दिनों, दाएँ न मुड़, बाएँ चले जाते भला
या तोड़ते ना एक दिन, वैसा किताबी सिलसिला
ये काम ना कुछ और करते, उस किसी जन की तरह
तम बंद ना होता, खुला होता गगन इसकी जगह
पहले ही उड़ जाते, धरा का मोह था जी का शगल
कहते थे जो अपनी ज़मीं, किसकी वो थी सदियों पहल
मिट्टी के मन का स्वाद, जो अवसाद रह कर भरभरा
उनके लिए कुछ और कर पाते, दरकता किरकिरा
किरचों में मिर्चों सी कई, यादें गईं शामो-सहर
पाते नहीं चश्मे सहारों में, न खोते ख़ाक जो खोई नज़र
तो देख लेते वो कि जो – ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

किया जो एक मौसम में, धुओं में बारिशों में भीगते
कुछ आग तारों की छुड़ा, दिन दूब की जड़ सींचते
तब रतजगे लगता था, जुगनू वास्ता है एक का
फिर कुछ दिनों के बाद, आए रास्ता समवेत का
खर-बखत छापे भीत पर, सीखे तजुर्बे जो हुए
देखे पुराने काफिले भटके, चमक के बुर्ज धूसर के जुएं
अब दो-पहर दो-राह दो-मन दो-विधा की तल धरा
गड़ती किलक की बात, सबने क्यों नहीं उतना करा
जो हो नहीं पाया, लदा बेताल सा काँधे इधर
पूछे कहो नश्वर गए उस राह के नक़्शे किधर
उस वहाँ होना था जहां - ऐसा नहीं तैसा हुआ होना तनिक बेहतर

एकमन बांच ले जितना, सभी होता नहीं एकमन कहा
इतनी बड़ी दुनिया में, सगरे मन अलग अपनी तरह
अपनी कही के दाह में पकती गवाही चाह में
ले कर चलें फ़ाज़िल पढ़े लिक्खे बहस की राह में
है अलग सच सबका अलग अपने अलग की क्या कहें
है प्रेम जिनसे उनसे भी अक्सर असहमत से रहें
ऐसा न था उस रोज़, जब ये पार या वो पार हाँ
चल-खरल पीसे एक सुर ये जीत या वो हार क्या
साधे न मन सब तार उचटे आज से छटपट उधर
माने न जाने तब किया कुछ बचपने से तर-बतर
ये उम्र का कहना अगर - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


अगर वैसा हुआ होता महज, होता भी जाता काश कर
क्या खैर ना उल्टा उधड़ता, काश के अवकाश पर
जैसे हमेशा, शोक के पल, लोप लेते हैं खुशी
औ दुःख के दिन भी सदा तो, रहते नहीं है ना कहीं
बदली में रहना और बदलना चाँद का आकाश में
चलना स्वतः विद्रोह में या मोह माया पाश में
चूंकि गरम है भेस कम्बल छूटते ही जाएंगे
चूके दिनों के देस मज्जा में कहीं जम गाएंगे
जो गुनगुनाएंगे मसहरी में चुनांचे रात भर
हर नींद को, हर चैन को, दे जाएंगे थोड़ा सा ज्वर
सुन रहगुज़र - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


ये हो सकता है, ये सब कल्पना हो, अल्प तुक आलाप हो
जिसकी जिरह खारिज हुई जाती है, मद्धम ताप हो
या है दिमागी दौर, रसायन का विरल संकोच है
जो कल बहल जाएगी, ऐसी आज की जल सोच है
जो भी है, कठफोड़वा कसक के एक कोने भल बसा
ना मुस्कुराया मन, चहक मुख मोर जिस भी पल हंसा
समतल तुले रहने की कोशिश, नट कला का कष्ट पद
तुक बेतुकी मुश्किल नहीं, मिल जाए खुद की एक हद
वो छोर, जिस की डोर से, बाँधे खुलें उतने ही स्वर
एक बात जो कह दें मुखर, सब हो भी सकता था अधिक बदतर
अगर वैसा हुआ होता कि जब - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

Dec 2, 2010

कैलाइडोस्कोप कनफुसिया

गलत ढूंढते हैं सही ढूंढते हैं,
जो सब ढूंढते हैं यहीं ढूंढते हैं
जो मिलता नहीं बस वही ढूंढते हैं
वो मिल जाए गर तो कमी ढूंढते हैं
कमी से परेशां ज़मीं ढूंढते हैं
ज़मीं भी बहुत दूर की ढूंढते हैं
बहुत दूर खुद में नमी ढूंढते हैं
नमन अनमने बन खुदी ढूंढते हैं
खुदी में खुदा बंदगी ढूंढते हैं
खुदा नाम बंदे बदी ढूंढते हैं
बदी नेक से सट लगी ढूंढते हैं
लगी में तने ताज़गी ढूंढते हैं
गुमे फूल पत्ती हरी ढूंढते हैं
कांटे जो चितवन हँसी ढूंढते हैं
हँसी घुलमिली पी खुशी ढूंढते हैं
खुशी इश्तिहारों की सी ढूंढते हैं
मुनादी में खबरों का जी ढूंढते हैं
खबर हो डरों में डली ढूंढते हैं
डर की वजह की धड़ी ढूंढते हैं
वजह से धनक गड़बड़ी ढूंढते हैं
शुबहे बा शक हर घड़ी ढूंढते हैं
टिकटिक न जानी कही ढूंढते हैं
अज़ानों में अपनी सुनी ढूंढते हैं
अँधेरे जला रोशनी ढूंढते हैं
सुबह रोज़ की हड़बड़ी ढूंढते हैं
जल्दी जली दोपहरी ढूंढते हैं
जले शाम हाज़िर छड़ी ढूंढते हैं
सहारे इमारत खड़ी ढूंढते हैं
साँपों में सीढ़ी चढ़ी ढूंढते हैं
चढ़े हों तो पारे कई ढूंढते हैं
कई मन के मारे परी ढूंढते हैं
परीज़ाद सपने नई ढूंढते हैं
पुराने रिसाले बही ढूंढते हैं
बाढ़ों से बच कर रही ढूंढते हैं
सूखे सफर तिश्नगी ढूंढते हैं
पिपासा जिज्ञासा रंगी ढूंढते हैं
रंगों में फ़ाज़िल कड़ी ढूंढते हैं
कड़ी जोड़ती फुलझड़ी ढूंढते हैं
पटाखों में बड़की लड़ी ढूंढते हैं
फूटे बरस की भरी ढूंढते हैं
भरती नदी और तरी ढूंढते हैं
लहर से किनारे ज़री ढूंढते हैं
किनारों के खोटे खरी ढूंढते हैं
खरी मनकरी मसखरी ढूंढते हैं
ठठ्ठों से जहमत बनी ढूंढते हैं
बनों में छितर चांदनी ढूंढते हैं
सितारों पे हरकत जगी ढूंढते हैं
नजूमी कलम दिल्लगी ढूंढते हैं
कल के नज़ारे अभी ढूंढते हैं
गुज़रा हुआ कल सभी ढूंढते हैं
जो है उसमें कुछ बानगी ढूंढते हैं
सांचों में सच सरकशी ढूंढते हैं
बगावत के पल हमनशीं ढूंढते हैं
रिन्दों में पर्दानशीं ढूंढते हैं
पर्दों में बातें बुरी ढूंढते हैं
बदमाश सारे नबी ढूंढते हैं
शरीरों में शहरी शबी ढूंढते हैं
कस्बों में हसरत दबी ढूंढते हैं
दबे गाँव गाड़ी रुकी ढूंढते हैं
सिगनल में तीखी सखी ढूंढते हैं
मिर्चों से आँखें धुंकी ढूंढते हैं
नज़रें उतारे यकीं ढूंढते हैं
भरोसे फलक में मकीं ढूंढते हैं
पता नाम सा कुछ कोई ढूंढते हैं
कहीं कुछ भी हासिल नहीं ढूंढते हैं
हिसाबों की गोली दगी ढूंढते हैं
लगी जो लगन की पगी ढूंढते हैं
पग थक गए बेदमी ढूंढते हैं
मुक़र्रर के दम ज़िंदगी ढूंढते हैं
ज़िंदा मुरादें सगी ढूंढते हैं
अपने से सब आदमी ढूंढते हैं
अलख ढूंढते अलग ही ढूंढते हैं
वो जो हैं जहां वो वहीं ढूंढते हैं

Nov 4, 2010

बेनकाब बेशराब

उफ़-आह  रंग  साज़   हैं,  लुब्बे  लुबाब  में
बेलौस  बांटते  हैं   सिफ़र,  दो  के  आब में

नीचे सिफ़र दिया, यही ऊपर की सल्तनत
ऐसा बयाँ इस साल भी, लिक्खा किताब में

कैसा  बयान था, वहाँ  किसका  मकान था
चल बाँट लें बन्दर के नांईं,  सब हिसाब में

इतनी कमी ज़मीं  की  बसर  में हुई,  पता
सामंत की  नज़र  है  अब के,  माहताब में

आकाश से  ऊंचा हुआ ,  उठकर गया जहाँ
जाती नहीं  आवाज़ तक, उस आफ़ताब में

आवाज़  गोलियों से  गालियों से,  दाब  दो
या बस  ख़बर से दाग दो,  नक़्शे जवाब में

ख़बरें  चमक  रहीं हैं,  बरसते  महा नवीस
चींटों के  पर  झड़ जा रहे, साहिब रुआब में

झड़ के गिरे पत्ते कहें, चिड़िया से डाल की
हम पर वे  चलके जाएंगे,  तेरे ही ख्वाब में

जो ख्वाब चंद आँख का, वो  खाम ख्वाब है
क्या  देखता  है  सुरसुरी,  बंद के हिजाब में

Oct 31, 2010

निशाचरण

यों इत्ते सा कड़वा है काफ़ी गुलाबी, ओ मन इससे ज्यादा न करना कसैला
रे दुखवा रे जा जा ओ रतिया के छैला

रे  जा जा  बहस का  गगन खुरदुरा है
उमस   का  गहन  लोपता  फरहरा है
खोले आँखें  तमस की पहर तीसरे में
गजर  का  वजन   गाज  का दूसरा है

ये टिकटिक की घड़ियाँ हैं भारी प्रभारी, विभा का समय चूर दिखता है मैला
रे दुखवा चला जा ओ रतिया के छैला

रे जा  अब कभी और जा  कर  सुनाना
सजा का  तरन्नुम  विषादों  का  गाना
उठा  सब  तमाशा,  हताशा  की  भाषा
फसक का फ़साना, यही  बस  बजाना

साज़ पकडें कहाँ  सुर लगा दूसरा जी,  लो जी भर  गया  नाद तनहा बनैला
रे दुखवा रे गा जा ओ रतिया के छैला

रे जा  ना   उठा  जा  रे  गल्ले से  छल्ला
ये  हल्ले में  हल्ला  ये  इल्मों का इल्ला
घिस-घिस गिला पिस मिला हाथ में जो
जुड़ीं  चार  दमड़ी   झड़ा  एक  अधिल्ला

अन्धेरे   उगलते  अठन्नी  का  मीठा,  बढ़ा  खून  चीनी,  खिलाते  करैला
रे दुखवा जिमा जा ओ रतिया के छैला

रे  जा  भाई रे,  थक   गए  जाग के  दम
गिने  कितने  गिरते  दिनों  में  मुहर्रम
निशा  दीप  में   याद  की ज्योतियों  में
मोतियों  सीपियों  सागरों  में जमा गम

मनन  से  कई  देव दानव  निकाले,  सुधा की  सुराही  पे  छींटा  बिसैला
रे दुखवा पिया जा ओ रतिया के छैला

रे जा कर न जा,  रह  भी जा धुन्धपाती
यूं  भर-भर   बढ़ा  जा, कलेजे की थाती
रात साथी   है तू,  कूचे  लम्हों  के बाबा
अजूबा   खुशी,   बात   आती   है  जाती

सरापों  में  बुलबुल  सियापों  से  मेला,  महाकाल  अंतिम बसेरा उजेला
रे दुखवा न जा रह जा रतिया के छैला

..रे दुखवा  न  जा  छोड़  जा ना अकेला
..रे दुखवा सुला जा ओ रतिया के छैला
..रे दुखवा..

Oct 21, 2010

नापचबना

सफर में हो?...

सफर में हो? कहाँ हो?  और कैसे?  यार बाजीमार,
तनिक फुर्सत तो आओ, बैठ लें, हो बात दो से चार.


अमां हो किस जहां?  वैसे ही क्या  धुनधार करते हो?
सरचढ़ी गड़बड़ी,  धड़  फक्कड़ी   लठमार करते हो?
मजलिस है मियाँ वैसी, कि बैठक है अलग इस बार?
सुनते हो   किसी  की,  या खुदी  दरकार करते  हो?

नुक्ता मत पकड़ना, गलतियां तो, और भी भरमार,
बढ़ती जा रहीं  जस  उम्र,  तस  सर  बाल चांदी तार.


कहाँ रिक्शे के पट्टे, आध दर्जन साथ लद फद कर,
गए अर्जन को क्या-क्या, नील छापे झूलते स्वेटर,
वो सरगम पाठ, लंबी डांठ, छोटी छुट्टियों के  ठाठ,
दबी जो बीच उंगली चाक, फटे फट हाथ पर डस्टर.

वो पट्टी टाट की, गर्दों में लिपटी  बहस गुत्थामार,
जुमेंरातों को लगते दिन शुरू के, खास मंगल वार.


लड़ाकू था जो इक बिन बात, बोलो क्या हुआ उसका
औ दो जो हांकता था हर जगह, वो ठसक का फुसका
चार  चिरकुट,  जिन्हें  तुम पीठ पीछे  चढ़ चिढ़ाते थे
कई वो भी,  नमक के गीत  गाने  का  जिन्हें  चस्का

वही  जन  डार  से  बिसरे, कला के कूट छापामार,
बया  के   घोंसले,   तन  फूल-पत्ती,  बेल  बूटेदार.


सुना  घोंघा   बसंतों में  विवाह-ए-प्रेम कर ऐंठा,
उड़ा   दांतू  जहाजों  से   फिरंगी  देस   जा  बैठा,
पढ़ाकू  कड़क  फौजी है  तो मौजी है  दुकानों में,
वो तेली  सूट बूटों  में,   बैदकी  में   नगर  सेठा.

कहो ना  राम दे!  सोचा नहीं  वैसे  हुए  शाहकार,
काम से कलम बनना था दाम ले हो गए तलवार.


ये क्या कहते हो  जानी  धुंधलके की सी कहानी है,
गई  वो  याद  मास्टर  साब  कहते  गुरबखानी  है,
कि काली डायरी भी तुमसे पूछे नाम क्या लिखना,
वजह की आयतों में किस जगह  बिंदी  लगानी है.

हाँ माना व्यस्त हो, सो सटकते भूतों से ये व्यवहार,
उम्मीदों की हरारत  जी  बही  खातों  से है ज्योनार.


अपन  का क्या,  अपन  ढर्रे में  ढल जाएँ प्यादे हैं,
लगे  चमचम के शीरे  में, मगर मिर्चों में ज्यादे हैं,
चक्कर-बात,   झंझावात   आते   हैं    हिलाते   हैं,
अपन  जड़ हैं  तो मन  के  जोड़ पर  धागे इरादे हैं.

बचपन से गए नप-चब गए,  हालात बन इसरार,
चांदमारी ये कुदरत की, सेंत में बन गए अशआर.


अरे हाँ सुन लिया, कहते हो ऐसे अब नहीं लिखते,
नई फसलों के मौसम हैं, कहन के हैं अलग रस्ते,
हमी टेढ़े के टेढ़े दुम  दिनों  क्या  साल  नलकों में,
रही  ढपली  पुरानी  राग  ताजे  जब  नहीं  बजते.

बनी बंसी से बासी सुर निकलते आ रहे इस पार,
जो दब लेंगे तो बदलेंगे, बदी नेकी के ऐ सरकार.


अजी कितना बदल कर आज भी कितना नहीं बदला,
मुखौटे   नाम   बदले   खेल   वैसा  दलबदल  घपला,
मुलुक की बत्तियाँ  पतली,  मोटक्के धर्म साए दिन,
अभी भी  रात  बहते  कौंधती  केवल  सफल  चपला.

ढही फितरत, रही मेहनत, सही दरबार के सहकार,
नहीं फुर्सत तो साथी मेट जाना  इस दिशा के द्वार

सफर में हो?...

Oct 16, 2010

एक पन्ना डायरी

अजनबी हम तुम कहीं, अपने जनम पिछले, मिले होंगे कसम से
हमको जो ऐसा लगा,  तो कह दिया,  चाहे कहो  हम बेशरम से

कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे

क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से

फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें,  रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से

मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन  दलदलों को  पाट के,  जागी  दुकानों में  सने,  छिन पल गरम से

उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से

और भी बातें बचीं, हों और किस दिन,  सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से

Oct 10, 2010

गुज़रते बादल

जाने  वो जब भी  समन्दर से गुज़रते होंगे
डूब कर खुद-ब-खुद अन्दर से गुज़रते होंगे

उनकी देखी हुई दुनिया वैसी दुनिया है जहाँ
बरसते होंगे जहां जिस बहर से गुज़रते होंगे

दरबदर आस के दरो दर के रिसाले से कहीं
चलते चाकों में  घन  ठहर से  गुज़रते होंगे

ऐसा  सुन पाए नहीं  उफ़ या आह बहते हों
खबर मालूम थी वो नश्तर से गुज़रते होंगे

सुना आँखों की हँसी बातों से न दूरी थी
पास कितने जी   बवंडर से गुज़रते होंगे

कभी चट्टान पे खिली धूप को खुलकर देखो
वो  उस बहार के   कोहबर  से  गुज़रते होंगे

गुज़रते बादल किसी के हुए न हुए सबके हुए
चाहे  खुद हों न हों   नम घर से गुज़रते होंगे

Aug 20, 2010

पत्नीव्रतांश

तुम नहीं थीं.
उन दिनों
रोज़ों के दिन
मैं
तुम्हारे बिन यहाँ
कुछ अस्त था कुछ व्यस्त था.
ऐसा बना
कैसे कहूँ
सब अनमना
इतने दिनों
तुमसे बिना झगड़े
लड़े कैसे बहा
सीधा सधा
चलता रहा वो दर असल
सब था अनर्गल
जिस विधा
अभ्यस्त था.
मन था निखट्टू
उन जिन दिनों
जब तुम नहीं थीं.


मोना गए कुछ दिनों बंगलौर थी छः साल से अटे काम को अंजाम देने, नानी मामा मित्रादि से मिलने [ और हो सकता है झकाझक बारिश देखने]; उसी के लिए लिखी ; वैसे इसे कल रात पोस्ट करने का मन था; अब क्या कहें कवितानुसार थोड़ी लड़ाई हो गई सुनी और कहा दोनों, सबेरे सुलह तो दोपहर को पोस्ट, ऐसा आया समय - थोड़ी लड़ाई प्रेम का गुड़ है :-)

Aug 17, 2010

जंगबाज़

ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज न पूरा जान पाता हूँ
इसीलिये पढ़ता जाता हूँ महज खुली किताबें उनकी बातें
जितना हो सकता है बिनबुलाए आता जाता अदृश्य
छीलता जाता हूँ प्याज़
और दुआएं देता हूँ उन सब को जो कुछ कुछ संभव करते हैं जनगण
और ऐसा होता है, होता जाता रहता है च्युत भी अद्भुत भी मन.


ऐसा होता जाता है दोधार नामाकूल जहां जमीन घूमती है टेढ़ी रोज़
एक स्रोत्र से निकलती है नदियां नशे की और रोगतोड़ दवाइयां भी नई खोज
वहीँ से बनती हैं जहां कारें बंदूकें बदलती हैं और औज़ार जिनसे पुल बनाते है
गजाभिराज जहाज जो तेल, माल मजदूर नेपाम और सिपाही दूर से दूर ले जाते हैं
बिजली के खम्भे बड़े, तंरगे तैरती है कुशलक्षेम की आवाजें तार जाती
हवा में मुनाफे, सौदे, दोस्ती और आतंक के नक़्शे सरमाए पहुंचाती जहां अभी
चक्कियां नहीं पीसती औरतें धुत्त पतियों से पिटती हैं सड़कें पहुँची हैं मुंहबाए वहाँ भी
मोटे होते जाते हैं कुछ ठेकेदार, कुछ ज़्यादा पढ़ पाते हैं कुछ बच्चे अंधियारे में
फलतः जिनके हाथ नहीं होते हथियार हथकरघे या हल, पहल के नवद्वारे में
जहां तक पहुँचती है रोशनी कुछ उजास आती है कुछ खटास बहस के बंटवारे में
ऐसे ही होता जाता है मीठा तीत ताप शीत दुनिया में कुछ यहाँ जहाँ
शान्ति के परम और विस्फोट के परचम में आता है एक ही नाम नोबल याद के सहारे में.


नाम ऐसे ही नाम बड़े नाम के खाते आते हैं हर सावन फ़ेहरिस्त में फलते जाते हैं
फूलती जाती हैं इतिहास में किताबें और स्कूलों में बस्ते
सडकों और अस्पतालों की पट्टियाँ बदलते कसते
असमानता की फैलती खाई पर फुसलाव के विचित्र ज्ञापन बरसते हँसते
लगातार के कटाव में ज़मीर के पड़ाव जाते हैं, आसमान आबशार ज़मीन पलटते जाते हैं
कारोबार से नए चौराहे उगते जाते हैं नए क़ानून आविष्कार
विचार, वर्जनाएं, उनकी रेखाएं कारक, नायक कलहकार
धार से बहते जाते हैं वो नाम विस्मृत होते हैं जो अडिग थे उस धार
या जिन्होंने किया ताउम्र विवादों, बेचारों और किताबों से सरोकार
इन सबके कारण और बावजूद कितना कुछ करने का रह जाता है
कहने से छूटता है बीच का अनकहा, अनसुना कह जाता है
आशा के साथ बदलती भाषा में बुढ़ाती सोच का व्याकरण घटता बह जाता है,


सोच में ऐसा होता है सोचना खचपच होता दीखता है अक्षांश देशांतर सींचना
बबूल और बबूले फूली आग में झोंकी आहुतियाँ चिटकती पीढ़ियाँ
सरल विवेक में दिवास्वप्न से निकलना दुरास्वप्न में दाखिल
होना रूमानियत का किसी किताब या नारे का संबल
कहीं दूर से दिखता है ध्रुवतारा कहीं उधार का कम्बल
दलदल के दालान तक आने पर अंततोगत्वा पुनर्नवा बचाव
विवादित पृष्ठभूमियों में ध्यानाकर्षित धूपछाँव प्रस्ताव
खोट में जाता इंसानियत का मानवता से जुड़ाव
और घर से निकलने के बाद दिखता तना सर्वव्यापी खिंचाव
संस्कृति की देह और देह की संस्कृति के बीच बहाव


व्यग्र विचलित और कल्पित ध्वनि के विहंगम भ्रमरांगण
मैं जान पाता हूँ बस उतने ही घमासान जितने दूर से दिखते हैं
उनके बीच में हरी लकीरें भी हो सकती हैं और धब्बे कत्थई लाल बिंदु से
जो बौछारें हो सकते थे धीरे-धीरे पड़ते हाशिए में काले
धीरे-धीरे अपना-अपना गहन गाढ़ा सान्द्र बहकाने वाले
साथी दुर्बल दिनमान जो नसों में कभी बहते ओज को क्षणिक लिखते हैं


गल्प में फिर भी निर्बल जंगली घास पैठती है सर उठा बनफूल बागों में सेंध लगाते
मिश्र धातु का पंचपात्र बनते बनाते व्यक्तित्व का आचमन
अपरिचित सप्तसिंधु से यथा कथा प्रतिरूपेण मिलता है मनन
यहाँ भी वैसा ही दीखता है आइनों में जैसा वहाँ है ब्रम्ह्वदन
आदर और सहमति के बीच साम्य न बना पाने पर सहमति से परे हटना
होता जाता है अकर्मण्य श्रद्धा के यातायात में निश्चित की दुर्घटना


हादसों से टापते चले आते है शब्दवेध के छोड़े सारे वाक्प्रमथों के झुण्ड
ध्वनिपारित व्यवस्था के अधिनायक एरावतों के वक्र तुंड
वक्र दृष्टि, वक्र विद्या, वक्र सृष्टि चक्र शून्य किंचित चिंता का भीम ताल
कुमुदिनी के छींट भर, जलकुम्भी दल विशाल
शिकायतों के दायरे अंबार आलोचनाओं के फन तनते है अंदर कराल
सामूहिक दुस्साहस से घनी भीड़ की अंगवाल से दम जोड़ता ज़हीन सवाल
किस दृष्टि से लगता है एक जग सब गलत किस कोण वही पूरा बेमिसाल?


प्रश्नकाल प्रश्नावृत घेरती है कसैली झुंझलाहट अहंकाल सहने की महीन आहट
कहाँ जाएँ इस हाल, कैसे हटाएँ दुखारविन्द से धवल प्रभात निर्वात
विचित्रविधि समय के चलचित्रविधि प्रसंगों में पुन रंग अहसास की बात
या कि बस खुद को बचाकर चलकर किसी तरह इस लंबे पहर की रात
त्राहि माम लगता है कटुघात, कभी खुद भी नहीं बचता आत्मसात अम्ल वर्षा खार बरसा
स्वयंपाकी स्वयंताकी स्वयंझांकी व्यवहारिक मनसा
कर्मणा और वाचा पर कब भारी पड़े अचानक कब ऐसा हो सहसा
समय भी न बचे और अतुकांत फफोला जीवाश्म में बदलता जाए शायद किसी पुराने शहर सा


शायद इतना समय होता ही नहीं शहर में पूरा समझने का ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज
न पूरा जान पाता हूँ इसीलिये फिर लड़ता जाता हूँ खुद से महज
खुली किताबों से उनकी बातों से जितना हो पाता हूँ अटकलबाज़
जिरह के बख्तरों में कैद गिनती का जंगबाज़.
छीलता जाता हूँ प्याज़.

Jul 29, 2010

कायाप्रवाह

हर दिन- प्रतिदिन, दिन-ब-दिन
एक सुर, एक लय, एक ताल
कब बाल बराबर बढ़ती है उमर
कब चलते-टहलते-बहलते युग जैसा बस एक पहर
कब एक रुका लम्हा, जैसे अविराम सालों साल

दिन तब दिन, खुश, शायद नाखुश, बहरहाल
दिन हल्के बीतते हैं उस दिन, सब होते आते हैं जिस दिन
वो दिन बीत जाते हैं, बीज जाते हैं कल्प वृक्ष दिन छद्म काल
और कुछ दिन हल्के सधे बिना हल के, वो दिन बरगलाये से भग्न भाल
मिली उंगली के मरोड़, अधखिली बातों के अधलिखे डोर डोर
अजदही स्मृति के अपभ्रंश से चेतन शेष दंश दिन बहुत बहुत कमज़ोर
बर्रे दिन छींट जाते हैं मुक्त पंख कुछ दिन, कुछ बादरद कुछ बेमिसाल

एक दिन उथल पुथल साँस में, एक दिन फूल उगते हैं बांस में,
फाँस के फूले चार दिन हताश दिन, निमिष से मन्वंतर तक कई सौ पचास दिन
एक साथ गिर पड़ते हैं सब दिन, उस दिन तंगहाल
दहन कक्षों से घुसती चली आती है उबाल,
एक दिन में में दो हज़ार रातों की धुंध तत्क्षण/ तत्काल
उधड़ते ध्वस्त दिन भागते दिन, वो दिन या बीहड़ वृहद जाल

दिन जब दिन, दिन पर आते हैं
पीढियाँ बढ़ जाते हैं बड़ी सारी सीढियां एक साँस चढ़ जाते हैं उछाल
हांफते हैं, कांपते हैं
क्या चाह पाते हैं क्या चाह कर भी भांप नहीं पाते हैं कुंद शैवाल
ऊष्मा सत्य की या अवसाद की, दिन किस शाम ठिठुर जाते हैं नौनिहाल
उम्र के दराजों में घुप के पुलिंदे दिन, डर प्रार्थना प्रार्थना और डर के भर के दिन
बोल के चुप के छुप के दिन, और डर और प्रार्थना कर, कुछ तो और कर के दिन
दिन कट कर, काट कर, कात कर, बेबात कर, अब इस छल, इस पल, इस समय प्रवाल
भित्तियां जोड़ फिर जोड़ किस दिन बनाएंगे कुछ दिन बनेंगे कुछ हाल
दिनकर शर के बिंधे कायाप्रवाह दिन, किस दिन ढलेंगे कंधे दिन निढाल
आज इस रात की जात बगैर जमात, कितनी ज्वाल में शीत कितना शीत में ज्वर ज्वाल

Jul 18, 2010

थकान कथान

चौबिस घंटा, बार महीना, जीवन में जीना दर जीना

पढ़े पहाड़े, रट कर झाड़े
बड़ी किताबों पर सर फाड़े
लड़के मौसम, दिन जगराते
कहाँ पता, कब आते जाते

खेल कूद कम, मन भुस मारे, पिच्चर थेटर ढांक बुहारे
खर्चे पर्चों में कल सारे, मेरु दंड कर भर कस सीना
[जीवन में जीना दर जीना]

कूप जगत से नीचे नीचे
बूड़े पहिरे ,बूझे पीछे
धूप नसेनी पकड़, गगन मुख
किस छत धाए मन, तन रुक रुक

फेर घटा कर सौ से एक कम, कम लगता जो मिलता हरदम
काक दृष्टि को चोटी परचम, खदबद मानुस, धार पसीना
[जीवन में जीना दर जीना]

कब उबरे कब, उठकर जागे
मृग माया छुट, सरपट भागे
बस कर कहकर, छोड़ छाड़ कर
जंगल चाहत, आर पार कर

रेत भरी मुट्ठी बह जाए, समय अजब झांकी कह जाए
भरे भंवर में रह सह जाए, बचता खोता ख़ाक सफ़ीना
[जीवन में जीना दर जीना]


[,,बाबा ढूंढ ढूंढ थक जाता, चालिस चोरों में मरजीना.. ]
आख़िरी पंक्ति बीवी को चिढाने के लिए

Jun 7, 2010

बढ़ते हुए बच्चे

रे ओ   इधर,   छोटी लहर,  जलधार   बहने  को  चली
आ निश्छ्ला, कल कल किलक, उद्गार कहने को चली

आ चल चली ठुमकी ठुमक, नव पग नवल पदचाप ले
नव कल्पनाएँ सृजन वन,  सह त्रृण तने खुद आप ले
रचने   निविड़ में नीड़,  अपनों  में   खुदी पहचान बन
कृष्णावृता   जंजाल में,  निज का सुलझ रुखसार मन

तन्वी कला,   मंडल प्रभा,   विस्तार   भरने को चली
रे ओ इधर,    छोटी लहर,   जलधार   बहने को चली

किस वेग   बढ़ जाती लता,  लगता अभी झपकी पलक
संवाद मढ़   संवेग चुन,  धुन   धड़कती धक् लक्ष्य तक
अचरज   मृदुल  छुट   पाँव,  हाथों में   ढला फौलाद कब
भय तनिक सा   खटमिठ मना, घर छोडती औलाद जब

लब स्वप्न, उर स्वर उदधि,  सागर   पार करने को चली
रे ओ इधर,   छोटी   लहर,    जलधार    बहने  को चली

झिल मिल बदल परिवेश में,  पथ ढूंढते   पल्लव पथिक
इत समय सम बनते गए, पितु मात कम साथी अधिक
गत   पार कालों की कला,  क्या तब चला   समझा दिए
अब मिल जुला   कैसा बुरा,  या क्या भला   बतला गए

सब  समझ,   नासमझी सहज,   संसार सहने को चली
रे ओ   इधर,   छोटी   लहर,      जलधार बहने को चली


(१) प्रियंकर कहते हैं चालीस से ऊपर की उम्र का यही होता है सो दायित्व का निर्वाह
(२) अलग रंग से चिन्हांकित “पल्लव” अनुप्रास का मारा है – उसके स्थान पर अपने बच्चों के नाम लगा कर पढ़ें तो और भला (या भला ) लगेगा

May 28, 2010

एकी यात्रा

आवाज़ तन्द्रा और कमजोरी किसी कहानी कविता से नहीं पैदा हुईं थीं उनकी,
उनका न संग पता था न थिर-रूप, पता-ठिकाना था भी और नहीं भी था सरे आम में,
उल्काएं थीं या थिरकी मुद्राएं शायद परस्पर अनुरोध में या संग्राम में.

जिसके पैर भी न देखे थे, आँखें पीछे ही पीछे लगी रहीं उनके, छोड़ कर मुंह देखना था ज्ञान नहीं था,
अंधा न था जो विश्वास था, उपहास की उक्तिओं में संदेशा,  अंदेशा मुखकी रगों में पिपिरही थी अनमनी,
वैसा संगीत था जिसमें नींद थी जागने के बावजूद, कभी-कभी संतुष्ट सोते पुष्ट होते अध्याहास महाधनी,
जामुन के रंग की यात्राएं थी शायद मन-घनी अधबनी.

जहां कपडे लत्ते साबुन मठरी, कंघी और संदूक और बंधे थे अधमुंदी नींद में,
तेल पानी था या कूचियाँ थीं गठरी में या नहीं / याद नहीं,
क्या फांकते गऐ यह भी हांकते गऐ दिन किसे निशा सांय,
कौन झाँक गया, बुझा चूना, कत्था, तमाखू, उल्टे हाथ ही रखा था बाएँ / दाएँ
सीधे आगे निकला था नाक सी सीध सा रस्ता,
मेढ़े से टेढ़ा तेज देसी पत्ता बिदेसी ठाठ बाट अलबत्ता, चहकता रोक सके तो रोक

भाग की झोंक में एक से ज़्यादा एक मौके, नसीबन कुछ एक धोके,
ऊपर की माया की शीतल छाया और छाया की तपती नोक,

शौक और धुंए के लंबे कैप्सूल थे, काले फेफड़े थे जैसे रेत में ईंधन,
धुकधुक की ड्योढ़ी में अंतराल था, ठोड़ी में दाग, टूट में घुटने, नस में वसा रसायन,
खून में बढ़ती चीनी, कविताओं में दुःख वातायन.

जब दूर (या पास?) बर्फ तह-दबे दबाए-पगे बाण ले आग-धूल निकलते थे उत्तर उत्तरायण,
उपरस्थ अस्त होते थे व्यस्त हवाईयान बे राग-मूल आयन-पलायन,
तब भ्रम में शान्ति, शान्ति और दया तेल थे हड्डी की रीढ़ में,
सोख्ते थे एकालाप बंबई, दिल्ली, दुबई, कलकत्ते वगैरह की भीड़ में,
समानार्थी थे सन्दर्भ में आखेट, आतंक, दवा, दहन. भोजन, शोषण शमन इत्यादि योजन

एकत्रित थे सभ्य सुसंस्कृत व्यसन / सुशिक्षित,
तच्छक के इन्तज़ार थे कथा श्रोता होते थे सर्वधाम परीच्छित,
जिनकी परिच्छाओं में पर्चियां थीं, गुपचुप तैरती कदमताल में पर्चियां,
कदमताल की किस्मत थीं जिनकी पारदंश पारकाल,

परादेश भरे खाली कैनवास थे बर्फ और धूप के सीमाबद्ध बयान में थे आशा और आस्था सखेद,
झक सफ़ेद थी उम्मीद यों कि कहते हैं ऐसा सब रंग मिल बनाते हैं जब इन्द्रधनुष लोपता है शून्य में,
कोई यहीं खोता है जब बारिश होती है रोती बाढ़ में बहता है सब नया आने के लिए जिस दिन,
पुराना गुज़रता है ठक ठकाता जागते रहो ख्वाब है दूर हरी घास का मैदान पास बेफसल,
बड़ी सारी लाल चींटियाँ हैं अंतस्, काटती हैं लाल होता हैं, यहां बाँबियाँ हैं बाँबियों में

क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.

घेरे चाक चौबंद कभी तोड़ कर बढते हैं कभी घोर में घेरते हैं अकथित अमूल्य,
अतुल्य निशाचरों के एकांत की उपासनाएं हैं जहां जिन्हें पहचानते नहीं थे कुछ जानने लगे हैं,
उनके एकांत में बाम हैं, पीठ में धप्पियाँ हैं, बिसरे उमस की हवा बिखरे हैं भूले पर चलते हैं चलाचल,
एक लंबी ऊंघी मशीन हैं भूरे कबाड़ी कागज़ किताबें, लंगड़, लट्ठे-पट्ठे निगलती, निकालती/ दखल
आत्मीय एकांत, बुलबुले खुल बंद खुले, वही सब अन्तोपरांत

सीमान्त दीप्त दीमकों का रचा प्रिय भूगोल- दीवालों के इतिहास में धूर मात्रा,
ऐसे अनायास की यात्रा में अनेक में एक में अनेक की यात्रा है एकी यात्रा.

May 23, 2010

आजकल फ़िलहाल..

क्या बताएं कब औ क्या करना है जी हुज़ूर
कैसे जीना, या किस तरह मरना है जी हुज़ूर

वैसे हैं जितने वक्त, ये मौका-ए-कायनात में
हर शाम घर में चूल्हा भी जलना है जी हुजूर

फिर मान भी लें रस्म-ए-नंगई का है रिवाज़
आदत हमें नहीं, ये बदन ढंकना है जी हुजूर

अब बेघर कहाँ रहेंगे जो हम दिल अजीज़ हैं
छत और तले दीवार को रखना है जी हुज़ूर

चश्म-ओ-चिराग तिफ़्ल हैं नादाँ हैं इस समय
तालीम के इन्तेज़ामात भी धरना है जी हुज़ूर

क्यों विज्ञापनों के राज में कहते हो सीधा चल
क्या यह नहीं सपने में सा चलना है जी हुज़ूर

May 9, 2010

अल्ज़्हाईमर

... ये मां के लिए, जो जाने कितने सालों से, बेनागा रोज सप्तशती कवच के पाठ को ही पूजा मानती थी.....इदं फलं मयादेवी स्थापितं पुरतस्तव, तेन मे सफलावाप्तिर्भवेत् जन्मनिजन्मनि.....– गए दो तीन सालों में इस बीमारी ने धीरे धीरे घुस पैठे स्मृति हुनर विवेक शब्द अर्थ सब हरे हैं, मां ने ब आस्था ..इदं फलं.. को नहीं छोड़ा है – हर सन्दर्भ में, व्याख्या में वाक्य, वार्ता में, कारण में, सबके कल्पनाशील निवारण में, तकियाकलाम ..इदं फलं..
....शायद यह भी कि ये कविता तथाकथित आनुवांशिक संभावनाओं के होने न होने के अपने भय के लिए भी है, तथाव्यथित होने से पहले.....  वैसे मां और बच्चों में फर्क क्या है....

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नोक से भी नुकीला
अन्धकार के पहले चमकता चमकीला अन्धकार
समुद्र के नीचे का एक और गहरा सम उग्र
और आकाश से सुदूर एक और क्षितिज आकाश अपार
दृष्टि पटल की सातवीं तह के परदे कुहासे के पार
कितने मन द्वार हैं अभेद्य, कितने अनुनाद सुप्ताकार.
भागफल के असामान्य अंधकूप
कोशिकाओं की कोशिकाओं के अणुओं परमाणुओं के वर्ग मूल रूप
संचित जमा हुआ भय - भयंकर भय अपरम्पार
जलधि का भय,
तड़ित का भय,
विदेह का भय,
इति वैश्वानर का भय,
उभरता दबे पाँव घुसपैठी गुत्थियों गलतियों घुस भरा भय
शनैः शनैः घड़ियों के समय के पार का समय
एक दिन आकंठ आएगा
इदं फलं – क्या ऐसा ही हो जाएगा?

ऐसे ही स्मृति वर्षा से हीन दीन दिनों में मैं कातर
ढूंढूंगा चित्रों में रेखाएं, गंध में सौरभ, आगतों में स्नेह
और स्नेह में संशय और संदेह में स्वागत झलक भर
परिकल्पना के कुटिल यथार्थ पर
खड़िया से चूरे सफ़ेद झरेंगे परम हंस झर झर
जटिल मटमैली लकीरें भाप साए
कितने पराए अपने, अपने कितने पराए
अजनबी बारहखड़ी लेखनी हस्ताक्षर
अगूंठा बन जाऊँगा कागज़ी कार्यवाईयों पर
बालसुलभ,
शायद हंसने की कोशिश की कोशिश में हंसकर
कोशिश जैसे कि बना रहे कुछ सम बंध,
संबंधों के इर्द गिर्द
कटती जाली से आती रहे नरम हवा सांस भर
कोशिश में कठिन टटोलूंगा
गिनतियाँ भूलने से पहले का स्खलित हिसाब
स्मृतियों से चूकते प्रसंगों में शेष स्वयं
कः कालः, काणि मित्राणि, को देशम्, कथं निगम

विचलित संवादों की परिधि के पूर्णाश्रय में
कौन सनद पाएगा,
दैनन्दिनी की त्रिज्या में
अनुभव का बीता तह तह, बह कर कपूर जाएगा
कलकल के पल, श्रम अनुक्रम संघर्ष अनन्य तम
शोणित के तीत, रोज़मर्रा के मीत,
जीविका और उपार्जन के किस्से पराक्रम
अतीत का व्यतीत निर्झर अंततः शुष्क शीत जाएगा
निर्मम है आज अभी कहना कुतरे जाने से पहले
दबे सुरों से, पहले घेर ले प्रारब्ध अधम
सर्वदा सदा नहीं रहा था
अन्यमनस्क , कर्तव्यविमूढ़-किं, असुगम

पार संस्कार के बंद तहखाने से खुले नक्षत्रों से आदोलित
इहलोक के स्नायुओं का टूटता दरकता पदचाप
लौटाव का तद्भव वार्तालाप
अस्थिर अटपट गजबज कथावाचित
परावर्तित आमूल शूल
मैं यह भी भूल जाऊंगा
अस्थियों में छुपा है वज्र मूल

स्व अवशेष स्वतः
अस्ति कश्चित वाग्विशेषः?

May 6, 2010

बड़बड़झाला

कह कहे साहब हमारे लाट, कुछ ना झाम करना
बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना

क्या धरा है? तेज धारा है, समय की है गति दृतमान
शामें शोख, हैं दिन धूम, धरती है नगर परिधान
क्या है देखनी, जो रात-बीती, बात-बीती, बुझ गई
बत्ती जला ले, रोशनी कर, देख बाकी घूमते रंग शान

इस घास पर चलना मना है, पैर को थम थाम रखना
जाम भर कर काम करना, मुंह भरे रम राम रखना

देख ले महाराज कितने काज हल कर चल रहे हैं
नींव से मेहराब तक हर कान सीसे ढल रहे हैं
मूरतों सी सूरतों पर मूंछ आनी रह गई बस
पूंछ की दरकार है, सरकार के ही बल रहे हैं

बलवा बहादुर बंद हैं, वादों में धमका धाम करना
और ज्यादा बोल दें, तो दुश्मनों से साम करना

बल पड़े रस्से, खड़े हो जा रहे, रस्ते बनें हैं
बम निवाला छाप भी, गुलदान में हँसते बनें हैं
फूलते वो जाएंगे, जो योजना के काम सारे
बड़े महंगे नाम नारे, दाम से सस्ते बनें हैं

बिक चुके सब खास, आबादी में सूरत आम रहना
निमिष भर की कल्पना में, कल्प में आवाम रहना


....बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना

Apr 11, 2010

बेतार की जिरह

कुछ सोच हैं, हैरान हूँ, परेशां हूँ बा वजह,
खुद के नाम हम कहूं, या यूं कहूं कि मैं.

क्या यूं कहूँ, ज़र्रा हूँ फू, सहरा में गुम गया,
एक जड़ हूँ बगीचे में, या गुंचों में है जगह.

किन खुशबुओं   में ख़ाक हूँ, किस रंग में फ़ना,
मैं हूँ यहाँ, या चुक गया, दफ़ना हूँ किस सतह.

या शाम का भूला हूँ, सो भटका हूँ रात भर,
तारो भला बतला तो दो, आएगी कब सुबह.

क्यों   धूप में ठंडा हुआ, जल में जला हूँ क्यों,
हर ओर समंदर, तो क्यों, प्यासा हूँ तह-ब-तह.

ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं,  ये रहती हैं   किस तरह.

इस खेल में देरी हुई,  मुश्किल थी, माफ कर,
ना जानता किस मात में, किसने कहा था शह.

लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.

Apr 8, 2010

भोथरा

लोहा आवाज़ की बुलंदी   पर बिखरने में लगा है,
लोहा   कागज   के कगारों से  छितरने में लगा है.
और है तेज़ मुहिम, ईमारतों में लगाने  की  लोहा,
ये मुआ गोलियों, छुरों, छर्रों में बदलने में लगा है.


लोहे को लिखना नहीं हे महंत,
उसे बाँट देना छोटे छोटे आतातायी हिस्सों में
जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में
तेज़ तर्रार अफ़लातूनी परिभाषाओं के साज सिंगार में
पूरे विश्वास से
चोगे में पढ़ी पसंद को गुण-ज्ञान में छांट बाँटना

लोहे से प्रेम नहीं करना हे महंत
गल कर निकल सकता है जैसे पीठ का पराक्रम
शैशव की पाठ्य पुस्तक से निकल भागता है रेत के टीलों में
वहाँ हवा लहरिया लहरें बनाती है
जैसी भी बारिश हो झट गुम हो जाती है
संज्ञाशून्य कोलाहल के अखबार में
हल नहीं बनते, हलाहल फैलते है जंग में गड़ती कीलों में

लोहे से सावधान हे महंत
विश्राम के समय, इस ज़माने से काला, भुरकुस भरम है,
चूल में चीखता है पुराना चौखट में घुसा है गरम है
तरीके में बसा है बस इतनी मजबूरी है
पुलों नव कलों पाँच तारा ठिकानों में
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है

पूछना नहीं लोहे की जड़ हे महंत
डर लगता है नए सवालों के निकल आने में
कोई खासा षडयंत्र रहा होगा जो सभ्यता ने छुपाया है
कहा किसी ने वैदेही की रेखा से चुना
कहीं बड़े सबेरे आँख खुली तो सुना
रगों में नहीं मिलेगा कलरव इन दिनों,
भोथरा
माथे से गिरा, आँख ने टपकाया है

Mar 25, 2010

वो जो बस नहीं है देह में ....

..यहीं कहीं है, रहेगा यहीं कहीं स्मृतियों के अवलेह में..

कार्तिक (२ जून २००४- २४ मार्च २००९) के लिए




ओ रे तारे,  जहां दूर जाना ज़रा,  
सारे तारे-जहां घूम आना ज़रा
दूर से ही वहीं, टिमटिमाना ज़रा,
ओ किरन की कनी, यूं दिखाना ज़रा



वो खुशी आंख से मिल खुली चुल्बुली,
चाहे जैसी   कसी   जिंदगी से मिली
हर कली मुश्मुशी, छांट लेना खिली,
मुस्कुराहट वही खिलखिलाना ज़रा







शब्द बौने, खिलौने, दवाएं- दुआ,
लाड़, मनुहार, सोना छुआ जो हुआ
ना हुआ इस जहां में जहां का हुआ,
वैसी दुनिया से दुनिया बढ़ाना ज़रा








कहते हैं, बिन दुखों का वो विस्तार है,
जहां से यहां अंत का द्वार है
पार संसार , ज़्यादा सी चमके खुशी
कष्ट कम हों, हो बेहतर ज़माना ज़रा 






क्या करें है अकेला तेरा ये सफ़र,
बस तेरा हौसला हम इधर ना उधर
भर के मन से लगाना नया जो मिले,
याद आने की हद याद आना ज़रा










खुद-ब-खुद ना सही याद आना यूंहीं,
खो न पाना पुराना नए में कहीं
ढूंढ लेंगे किसी दिन वो तारे-ज़मीं,
उस जहां में ठिकाना बताना ज़रा






ओ रे तारे..




http://www.youtube.com/watch?v=eL5CZfYeE-o

Feb 26, 2009

प्रभाहत

क्या अभी भी बैठे हैं वहाँ
सपने देखने वाले
चिड़िया की कलगी पर
चीड़ों की फुनगी पर
देखते हैं आभा के रक्तिम
जहाँ दीखते हैं गहरे से काले

लौटने वाले
साए लंबे होते हैं छाया से प्रेत
गर्म हवाएं
देस के भेस लौटती आशाएं
बरसात की बाती उम्मीदें जिनपे गहन बिके खेत
भाषाओं से खारे समवेत
रेत की शहतीरें, रेलम पेल के मर्ज़
जमा खर्च कुछ चुकाए/ अनचुके ज़मीनी क़र्ज़
गिरहबान में छले छाले
दर्ज़ है तारीख में
खोये पाए हिसाब के हवाले

अस्तव्यस्त
डब्बे चित्रपटों में बदलते दुनियावी
दुविधा की सुविधा के बेशकीमती मरहम
द्रुत गति की सुर्खियों में छींकते महानतम
आदतन बाँटते हैं झोल दिलासाएं
गुफाएं, सुरंगें, कंदराएं
पेट को जोड़ने हाथ से काटने के उपक्रम
कहाँ जाएं - झूठ में या जूठे सच में
हैं लस्तपस्त
लम्बी चढ़ाई के पहिये
चरमराये सम्भव असंभव को कूदने फांदने वाले

ऐसे में फ़िलहाल
चुप की ज़मीन चुपके से
दिग्भ्रमित आसमानों पर रोई है
आराम के मकानों की राह
इत्मीनानों से मुड़ के
बहरहाल
बलुआ धसानों में खोई है
गिनती की सूखी उँगलियों में
कितने बुत पत्ते हैं बन टूटने वाले
बस इस बरस के बसंत
बरसे हैं पतझड़ के पतनाले

आत्मीय सर्वनाम
संज्ञा शून्य तागों में
लटके स्मृतियों के चले वर्ष
चौंकते चटखते विषाद को
उल्लास में ढूंढते ढले उत्कर्ष
पकड़ से निकलते जकड़ी आखों से पकड़ते
संघर्ष से परिणाम
परिजनों से पत्र
काढ़े संवाद की रेखाओं के दुखड़े वक्र
समय चक्र में गड्डमगड्ड सरे आम
जाले ही जाले
ज्यों हर लड़ाई के हारे नाम
जीते हैं हरिनाम के सम्हाले

अनवरत
वैसे ही कटते हैं सुख जैसे
दुःख ढक जाते हैं
भय के ताबूत भरे दिन
दबे पाँव पक जाते हैं
आहटों को टोहते
प्रभाहत
ठिकानों में
चाभियाँ भी उनकी हैं उन्हीं के हैं ताले
धूप छांव में
यूं ही बैठे हैं सपनों में अपनों में देखने वाले

Aug 15, 2008

एक दिन/ रात आज़ाद

रात के सफ़र कटें, आख़िर सफ़र बयान बने
तुम बनो, हम बनें, काश हिन्दोस्तान बने

सिर्फ़ इतना ही गुलामों ने आज़ादों से कहा
शायद इस साल, कुछ और नए इंसान बनें

किले कीलों से जड़े हैं, महफिलें मस्तूलों में,
यही कहना है, थोड़ी बेहतर सी पहचान बने

वो ही चेहरे हैं ज़र्द, थामे हुए हैं झंडों को
कहाँ उन्हें रंग मिलें, गर्द पे मुस्कान बने

बढ़त की बाढ़ बड़ी, आला दफ्तरों से आती हैं
थाना कचहरी की है, कि कैसे यहाँ ईमान बने

इतने सालों से यही सुन के, कब उकताएंगे
मेहरबां ऐसे हालात से,आप अब परेशान बनें

[.. आज़ादी की जितनी भी शुभकामनाएं हो सकती हैं ,उनके साथ उतनी ही चेतन संवेदनाएं भी ... ]

Aug 11, 2008

नज़रबट्टू

एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

खोज में जो भी मिले, या ना मिले, मिल जाय मन,
सब एक सा हो, या नहीं हो, हो तनिक दीवानापन,
मद हो, न हो मद-अंध, बन्दे एक ना हों, साथ हों ,
मादक बहस, विस्तार नभ, चुटकी हो बातों से चुभन।

चार खम्भे, सर्प-रस्सी, सूप के पर्याय,
तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय ।
प्रियवर जवाबों में लड़ें, सहयोग के अध्याय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
अक्ल के कुछ शोर, पल अलगाव खींची डोर पर,
पल तने बदलाव, पलकें रसभरी की टोकरी ।

इन विविध धनुषों के तीरे, इन्द्र भी शरमाय,
रूपकों को रूप की ही नज़र ना लग जाय ।
बोरियां भर मिर्च मिर्चें धौंक कर समझाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय ।

...एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय ।

[ऐसे ही]

Aug 1, 2008

कथाहारा

मर्म के सब पाँव बोझिल हो चुके हैं
टीस के तलवे तले फटती बिवाई,
रिस गई है रोज़मर्रा रोशनाई,
प्रीत के पद / राज़ अंतर्ध्यान हो कर खो चुके हैं।
योजना की भीड़ में सहमे सफ़े सबहाल,
बेसरपैर बातों के घुले दिन साल,
आदम-काल, बिखरी पीड़ के निर्वाण के पल धो चुके हैं।
चुक गई है, छद्म अन्तर से निरंतर में रुंधी बातों की गिनती,
ढूंढता है प्रश्नचिन्हों में बसी विश्राम धारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
हाँ वही पागल, घुमक्कड़ बचपनों की नीम को जो चाशनी में घोलता था।
अनदिखे खारिज किए उन्माद को, अवसाद को,
तिल-तिल दुखाने के नकाबों को सफ़ों में खोलता था ।
डोलता संकरे पथों में, घाट में, पगडंडियों में,
मोल भावों के बिना, जग जोर जागी मंडियों में,
समर के मैदान ले, सागर / नगर के तट तहों में,
चुन तराशे कथा-किस्से धार-धारा तोलता था ।
बोलता था, गोल मोलों में, कहाँ कैसे रंगीलों ने रंगा,
रंगबाज हाथों से कहाँ, कितनी सलीबों में टंगा,
टाँके लगा कैसे चला, जब लोचनों / आलोचकों ने तीर मारा ।
कथाहारा....

कथाहारा ..
कथन के मूक में मन ढूंढता रहता गया।
लंबे समय से काजलों को जोत से ले,
तर्पणों को स्रोत से ले,
किरमिचों की भीत में भरता गया
खाली गगन में छाँव तारे,
वृन्द में अटके किनारे,
खूंट से खींचे विकल व्याकुल सभी सारे,
सभी के अनकहों की व्यंजना के बाँध ले चलता गया ।
रिसता गया रिमझिम कमंडल, हो गया कृशकाय, स्वर पूछे
कहे ऐ मित्र तुमने क्यों पुकारा ?
कथाहारा ..

कथाहारा ..
कहाँ छूटा सफर में, धुन धुनों में धिन तिना ताना बजाने में ।
विषम बीता, विषय बीते,
विशद से काल क्रम जीते, बहाने में
तमन्नाएं उड़ीं, यूँ बाज बन, गाने बने रोदन छुपाने में
पुराने दिन, उन्हीं के अटपटे संवाद,
पुस्तक में दबे सिकुड़े पड़े प्रतिवाद
सूखे-फूल सुख में दुःख गए सन्दर्भ के अपवाद,
बचे कितने दिखेंगे दृश्य-छिलके, लौट आने में ।
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम
सफल हैं वन, विहंगम वर्जना के मुंहलगे कटु हास ।
घृणा के घोर से सिंचित
कटे आमों को जीमे जो महामंडित
खिंचे खानों में खंडित
है सियासत, सरफिरे हैं दीन दाता, रंग करे हैं धर्म से इतिहास।
है विगत मनु वेदना, ऐसे समय सम भाव की बातें लगे हैं बेतुकी, बेकार,
बेमतलब सरायें हैं बनी प्रतिशोध के आगार,
शायद है यही, अतिहास की कारा
कथाहारा....
थकाहारा....

आप सब के लिए :- दो महीने का समय अपने युग में खासा होता है - इतने अंतराल के बाद भी आप सब जो झाँक जाते हैं, पसंदों में शरीक करते हैं, उस प्रोत्साहन के बड़े माने हैं- पिछले दिनों जैसा कह रहा था उलझ के ज्वर जाल खासे थे - खैर ये सब तो जीने के रंग हैं - अभी प्रयास है नियमित होने का यदि नियति की नेमत रहे - सस्नेह - मनीष

Jul 25, 2008

जीवनसाथी

तुमको बस देखूं, तुम्हारी आँख में तारे पढूं
मुश्किलों के दिन, दियों की जोत के बारे पढूं

बन में परेशां परकटे, बादल उतर आएं जहाँ
बिजलियों के बीच बहकर, धीर के धारे पढूं

धूल उड़ बिछ जाएगी, थोड़ा सफ़र है गर्द का
ग़म समय में याद करके, याद के प्यारे पढूं

राहत मिले फ़ुर्सत करूं, फ़ुर्सत मिले राहत करूं
उलझ के ज्वर जाल टूटें, प्यार के पारे पढूं

क्या करूं क्या ना करूं, किस बात की तौबा करूं
सबसे बड़े गुलफ़ाम, तुमके नाम के नारे पढूं

इस बार से, उस पार से, हर जन्म से, अवतार से
मांग लूँ हर बार, सुख दुःख संग सब सारे पढूं

May 27, 2008

अटपटे कपाट

पिछले एक महीने के अवकाश के समय जोड़ जोड़ कर लिखी हुई - जब ख़ुद पढ़ा तो लगा कि ईंट / मट्टी वाले चूल्हे में मिटिया की हांडी में खिचड़ी सी पक रही है और आवाज़ आ रही ख़ुद-बुद -ख़ुद-बुद-बुद-बुद -ख़ुद-बुद....

....अभी फिर अनिश्चित कालीन अवकाश - थोड़ा काम आ गया है - जाने से पहले लम्बी कविता ....


उन दिनों.....
बड़े सबेरे अखबार बिकते थे लारीखाने में,
पैदल दौड़ते थे,
बसें पायदानों तक ठूंसी जाती थीं,
हड़बड़ी की घंटियाँ बजाते थे, रिक्शे, दूधवाले और साईकल सवार,
दिन शुरू होते थे दुनिया के जिनके चढ़ते-चढ़ते,
दोपहर तक बस अड्डे में ज़्यादा गाडियाँ नहीं रहती थी,
रहते थे इंतज़ार के मुसाफिर,
अगले कम-ज़ोर हौले-हल्के सफर के
भरम में, या शाम के आने में।
बड़े ग़म तब भी थे ज़माने में।
उन दिनों.....


उन दिनों....
सुफ़ैद के सलेटी पैमाने में,
गलियारों के इसी तरह आने और आ के जाने में,
सौ फीसदी झूठ नहीं मिला,
न मिला सच शत-प्रतिशत,
पहाड़ों में हिमनद टांगें तोड़ पिघलते रहे,
पठारों में जुगनुओं के झुरमुट सवाल सूरज से जलते रहे,
बड़ी रात के आवारा, चाँद को बिताते गए,
सितारों की भीड़ में जवां बरगद, नीड़ तक पगडंडियाँ बनाते, गुल खिलाते गए,
रेत से पतली नदी ने भी चाहा था कैसे पूछ जाना,
कि तुम्हें कोई क्यों "ऐसे" समझा ही नहीं?,
"जैसे" तुमने चाहा कह पाना,
कूट शब्दों में,
उबलते कछारों के मातहत,
दूर का इन्द्रधनुष तब भी सतरंगी था।

कौतूहल, कंपन और क्रोध के बीच समतल में केवड़ा, कनेर और बांस उगने लगे थे।

उन दिनों......
जब आम के बौर फूल कर गए थे बिखर,
महक ही महक में थी भरी दोपहर,
जो भी कुछ कहा जा रहा था, उस पल - उस पहर,
वो सब कहा जा चुका था,
बस पूरा सुना नहीं गया था,
बड़ी नदियाँ खुले आसमान/ मैदान और खट्टे करौंदे
बड़े, खुले और खट्टे होते थे,
हम नवजात कान थे और महफ़िल की सीलन पुरानी नहीं थी,
फल तोड़ने को नहीं निकले थे उस समय,
अपने चश्मों से बाहर,
घाम का लाज़िम इन्तज़ाम नहीं था ।

चौके को लीपने और नित्य के मंजन से फ़ुरसत भी मिलनी चाहिए थी

उन दिनों.......
क्या वही था -जो हुआ था,
या होने वाला था,
होना चाहिए था या हो कर भी नहीं हुआ,
अंगूठी से थान, काली टोपियों से झांकते सफ़ेद कान,
निकलते रहे गोगिया पाशा के गिली-गिली फरमान,
बंद चिरागों में ठूंस कर दिया वरदान, था अनछुआ,
गर्द की जो एक और पर्त थी एक और रोशनदान पर,
उसपर उचकती छोटी उँगलियों की छापें लगी थीं,
बाहर साहस और आस्था जुलूसों में डंटे थे,
आँगन में, मजनू की पसलियों पर जीरा नमक लगा कर,
इत्मीनान हो रहा था ,
मसौदे की तलाश का।

टूटते तारे को दूरबीन से देखने के कार्यक्रमों की रूपरेखा का समय था।

उन दिनों....
खुश के पैबंद और रगड़ के कमरबंद साजे,
ऐसे ही बड़के थे हुए ताज़गी के अकलबंद किस्से,
बुहार कर छाया को ताप के मनमाने, मनचले हिस्से,
कायदे, ताड़ के पेड़, शहतूत के दरख्त, अमरबेलें और शरीफ़े,
लतीफ़े बारी-बारी अपना-अपना महीन बुनते गए,
और चुनते गए ठहाकों की वृत्तियाँ, नाम के बंडल, धमाकों के वजीफ़े
सलेट पर इबारतें लिखी/ मिटाई/ काटपीटी/ बनाई जा रहीं थी,
नेपथ्य में अंगुलियों पर धागे बांधे जा रहे थे,
होने वाला बड़ा मजमा जमने लगा था,
श्रोता और सिपाही अपने अपने मोर्चों पर जाने लगे थे।

परदे उठाने की उम्मीद यूँ थी कि अवतार निकलेंगे जल्द ही इस द्वार से या उस द्वार से।

उन दिनों.....
पैदायशी हिचकियाँ आने लगीं थीं,
ठीक उस वक्त - जब तालियाँ हथेलियों से फिसल रहीं थीं,
मेले में एक बच्चे के खोने की घोषणा हो रही थी,
और मोम के जहाजों के आग का दरया पार की सफल यात्रा पर
जलसे के परचम तन चुके थे ,
इतना सब होने के बावजूद (या कारण?)
क्यों हम बड़े नामों को तब भी खंगाल कर टेर रहे थे?
कलफ करे कुर्तों पर इस्त्री का लोहा फेर रहे थे ,
जब हमें कोई संबल, पुचकार या दिलासा नहीं थे चाहिए,
हम गोदाम को शहर बना आए थे,
रगों की बूंदों को कलम की स्याही में मिला कर ।

ऐसा क्यों लगता था कि अगली पीढियों का आसमान उगा रहे थे हम गरम मेमने?

उन दिनों.....
एक निष्कपट उचाट के साथ रहते-रहते,
सपाट भरी ऊष्मा को भरोसा होता गया था कहते-कहते,
कभी कबीले रंग बदल कर फूलों की क्यारी होंगे
कभी साथ गाड़े सुर स्वलाप के आलापों पर भारी होंगे
और वैसी सारी कसमें टूट कर निकलेंगी गिरफ़्त की बहस से
"क्या करना है" बेहतर होगा "कौन कह रहा है" के सहज से
महज पद्मासन की बपौती पर ध्यान नहीं होंगे,
होंगे नींद से उठकर ठंडे पानी के स्नान, धुंध के अवसान नहीं होंगे,
क्या इसीलिए मल-मल कर धोते गए सादगी और इबादत?
जब अधपकी झपट और न्यायपालिका में हाजिरी लगाते थे,
अंगूठा ऊपर कर / एक बाहर, तीन अन्दर उंगली उठाते थे।

कुछ बड़े सन्दूकों के ताले अभी भी पूरे नहीं खुलते चूलों में फँसे, जंग के चलते।

उन दिनों....
उम्मीद की परिधियों पर चहचहे ,
कागजों के गुड़मुड़ाऐ गोले, सबूत थे गवाह रहे,
उथली ही सही, किसी को, कहीं से, कुछ तो, परवाह कहे,
रेल की पटरियों सा, साथ साथ चलने से,
क्या बेहतर है उन का, एक साथ मिलने से?
मैं क्यों नहीं समझ पाता तुम्हें पूरा? यह समझ पाने की अधूरी कला,
मैं निमित्त था या था देश, काल, प्रबल के प्रवाह में छिना छला?
इन सारे सवालों के महकमे, इफ़रात के दिन रात उकसाएंगे,
धुएँ दुमछ्ल्लों में उछलेंगे, और प्रदूषण में खो जायेंगे,
अगली आबादी में कवायद लगाएंगे, आरामकुर्सी पर थके पैर,
फूटेंगे प्रारम्भ भी संयम की परिणिति में बन कच्चे आम और मीठे बेर,
कहीं न कहीं नए बाँकुरे फिर ज़रूर फूल जाएंगे।

तब भी सीटियाँ गुहार मारेंगी इस मंच को, जब पटकथा में बहुरूपिये सूत्रधार ही रह जाएँगे

..... इन दिनों .....
सच और अपच के दरमियाने में
आलस, आस्था, अचरज और आक्रोश के चूमने चबाने में
नए सुख/नए ग़म और पुराने आनंद के युगल गीत गाने में
समय समाप्त है इस समय, इस कविता को पढने पढ़ाने का,
शायद नहीं, नहीं शायद, इस कविता के उखड़ने उखड़ जाने का ?

..... उन दिनों..... ?
..... इन दिनों .....?

May 18, 2008

चुप : गरमी के मौसम में

खिड़की खुली रक्खें, हवा से चोर झोंके आएंगे,
पीठ पल्लों पर धरेंगे, मौन को बहलाएंगे ।

जालियों से जूझ कर के,
राहतों को मूँद कर के,
उलझनों के वाक्य आधे,
बाबतों की बूँद भर के,

ओंठ पर अठखेलियाँ कर, शब्द पढ़ कर गाएंगे,
गीत छंदों से खुलेंगे, मुक्त हो उड़ जाएंगे।

इस गगन से मगन बनकर,
कह विरह सह भग्न अन्तर,
वेश भूषा आगतों की ,
स्वागतों भर मर्म मंतर,

आप हम फिर कब मिलेंगे? कब कहाँ गुम जाएंगे?
भीड़ है भरकम, कदम कम, रास्ते पुँछ जाएंगे ।

राह जब उत्साह धरती,
व्यंजना मन मान अड़ती,
ताड़ती कथ कण अबोले ,
ना लिखा अभिप्राय पढ़ती,

अनकही गूंजें बिलख कर, शोर मन भर लाएंगे ,
मौन से कोलाहलों में, साथ चल कर जाएंगे ।

चुप लिखा था भेद सारा,
चुप छुपा मैला किनारा ,
चुप गिरे मनके छनन से,
चुप मिला दरिया बेधारा ,

बक- बोल- बतिया कर ई साथी, बहक में मद पाएंगे ,
देर हो अंधेर हो, सौं नित कदम मिल जाएंगे,

खिड़की खुली रक्खें ....

खिड़की खुली रक्खें, बहुत से और मौके आएंगे,
इस तरह बातें करेंगे, उस तरह हड़काएंगे,
कब मिलेंगे ना पता, पर बाट जोहे जाएंगे,
जब मिलें इस साथ पर, कुछ कहकहे ले भाएंगे,
ताक धर देंगे सुराही, डूब कर मन लाएंगे,
अपनी तरल शामों में गिन गिन तल्खियां सहलाएंगे।

खिड़की खुली रक्खें ....

दिवस जात नहिं लागहिं बारा - देखिये एक महीना उड़ गया - पिछले एक महीने में दो हफ्ते काम, काम का आराम, आराम का काम, और काम, और काम, बाकी समय राम राम दुआ सलाम । ऊपर से किरकिट की खिट खिट - अभी गाडी पूरी लाईन पर नहीं है - अगले हफ्ते तक संभावना है - ढंग का माफ़ीनामा लिखने का भी समय नहीं - समझिए ...ऊपर से आज दिल्ली पुन हार गई - अगर कविता सही न लगे तो दोष दिल्ली का.....[ :-)] -स्नेह और धैर्य पर ही यह पुराने ज़माने का ब्लॉग कायम है - साभार - मनीष

Apr 18, 2008

साधारण का साधारण गीत

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
योजन भर के अरमानों में, संक्षिप्त रूप से बह जाना।

ज्यों द्वेष नहीं कर पाते हो,
उपदेश सहज कर लाते हो।
चित तेज धार पर जाते हो,
पट मंथर- मंथर आते हो ।

ऐसे करतब दिखलाने में,
नट, खट से झट कर जाने में,
सब सही नहीं करना साथी ,
कुछ भूल चूक छापे लाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
लेनी देनी की भूल चाल, गुन सब के बहलाते जाना ।

है समय आज का विषम विकट,
रफ़्तार बाँटती डांट डपट।
चेहरे आश्वासन लपट लिपट,
अंदाज़ नहीं क्या कलुष कपट ।

तुम कारीगर के हाथों को ,
औ छिन्न-भिन्न मधु खातों को ,
सहला बस देना एक बार,
मरहम की पुड़िया धर जाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
मातम को हुश हड़का देना, खुश बंद द्वार को दे आना

जो बड़े रहें बढ़ते जाएँ,
जो खड़े रहें चढ़ते जाएँ।
जो अड़े रहें भिड़ते जाएँ,
जो पड़े रहें, सहते जाएँ।

ऐसा रहता ही होता है,
बादल को पानी बोता है,
तुम झूम-धूम को सरस-बरस,
थोड़ा सा पानी दे जाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
पुन लाज सजा कर मौसम की, फक्कड़ झंडे भी से आना ।

Apr 8, 2008

उदारीकरण : उपसंहार

बाज़ार के बीचों बीच भरापूरा धंसता हुआ,
बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
पीछे मुड़ कर देखता है / आगे चलता है,
पोले खम्भे से भट भिड़ता है,
पीछे देखता ही क्यों है?
लम्बी दौड़ का कछुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
पीछे देखता है शायद,
बाज़ार के मुहाने से पीछे का अरण्य,
जिसमें अभी भी हिरन, खरगोश, गिलहरियाँ हैं शायद,
शेर, छछूंदर और कनखजूरे, इल्लियाँ और तितलियाँ शायद,
बेताल, बनदेवता और बनमानुसों के अलावा,
कितने और सारे खोये शायद,
उल्टे पैर, तोतले स्वर, पीपल के गाछ,
भय से अचरज से अपवाद बनते हुए,
पत्तियों के साथ-साथ खाद बनते हुए,
और देखता है शायद/ उठता,
उपलों में सीझा धुआं ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
कंधे झाड़ता है,
सम्हलता है,
अपनी झेंप में विश्वास,
और कनखियों में साख,
(और आदमीयत?) की पुष्टि मलता है,
और चलना शुरू करता है/ फिर आगे चलता है,
खुले अखबारों चीखते चैनलों को चीरते संसार का जायज़ा लेने में व्यस्त,
अस्त और उदय की जुगलबंदी में लगातार त्रस्त,
अविश्वास की मौज में छंटा विद्रोही,
डिग्रियों, साक्षात्कारों, असल-नसल और जनमपत्रियों का बटोही,
लपक कर लपकता है,
कुछ अपने हिस्से की दुआ ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
आगे सा ही बढ़ता है,
तमाम जगती, जगमगाती, रोशनियों,
रेहड़ी, दुकानों, और उनके निशान- परेशानियों को पूछता,
ताकते, टोकते विज्ञापनों में पुरस्कार ढूँढता,
निशेधाज्ञाओं और षड्यंत्रों की जद्दोजहद में,
कमनज़र समेटता है, कम्बल, गद्दे, रजाईयां,
और जैसी भी गरमी की बिखरी परछाईयां,
रात में अलाव की लकडियों के लिए,
जंगल में और नहीं लौटना चाहता,
लील न ले कहीं,
कोई पुराना ठंडा कुआं ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
आड़ी, टेढ़ी, जलेबी लकीरों में खींचता है,
नियति, सम्बन्ध और बाज़ार की संभावनाओं के बीच,
सफ़ेद, बुर्राक़ और प्रकाश का अन्तर,
खनखनाते नसीब और खखारती आत्मा के पशोपेश में,
जो नहीं देखना है उसे परदे के पीछे,
या मुठ्ठी के भींचे अन्दर,
या रोशनी की पीठ के गुच्छे तारों में,
या हाशिये और प्रवाह के एकसाथ समानांतर,
खेलता है,
चाव से लतों में फेंट कर,
साँप, सीढ़ी और जुआ ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
धीरे-धीरे छोड़ता है, असबाब, माल-टाल,
फरुआ, हल, तसला, असलहा, चैन, गैंती, रेगमाल,
फिर भी
जुतने और जोतने के दोधारी अस्तित्व में अभी तक वर्तमान,
एक गंडा भर बांधे है श्रीयुक्त श्रीमान,
कुछ स्वस्थ कुछ थकेहाल,
ताबीज़ भरे है हंस के पंख, लोमड़, गैंडे और बाघ के बाल,
हाल चाल/ में सधे चेहरे जानता चिन्हाता है,
गउओं, कउओं, गिद्धों, गिरगिटों में बतंगड़ बनाता है,
(और कान के पीछे काला टीका अब नहीं लगवाता है)
तीन सौ दो, चार सौ बीस को गिनती नहीं मानता,
खिड़कियों पर सलाखें, जंगले, मोटी जालियां लगवाता, ठोंकता,
सजाता है द्वार पर,
संटी वाला पहरुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
पता नहीं, मौका तलाश रहा है,
पता नहीं ज़िंदा है या अवकाश रहा है,
पता नहीं कर्तव्य के निर्वाह में है,
या बेचैन आरामगाह में है,
यह भी पता नहीं कभी,
उसकी आंखों के कोनों से टहल गया अतिरेक
विदा का था या मुक्ति का,
प्रश्न भूले बिसरे हुलसता है, कभी एक,
अभी भी समझ में नहीं आता है,
उन्माद का सृजन,
पुरवा था या पछुआ?

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
भूल से भूल लिखता हुआ,
वो तो जा चुका, निकल गया,
क्या था? कहाँ, किसका हुआ?

Apr 4, 2008

आशा का गीत : आशा के लिए


बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन

जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर
सच ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन

हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी

हों मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन

दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो

मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर

कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में

मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

Mar 29, 2008

हलफ़नामे पर विवाद होना ही है

इस बात पर भौहें तनी, पलकें उठीं, और पुतलियों के नृत्य हैं।
कह्कशाँओं में अधिकतर, लोभ के ही भृत्य हैं।

अतिशय अभी अति-क्षय नहीं,
अनुराग है रंग-राग से,
हाँ चाहतों से भय हटा,
है प्रीति प्रस्तुत भाग से।
स्वागत शरण दे सर्वदा, संतुष्टि रहती अलहदा,
परमार्थ के वाणिज्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

सूख जाएँ स्वेद कण,
जीवन मरण दलते रहें,
अधिकार से हुंकार भर,
जयकार जन चलते रहें।
सादर शिखर की भोगना में, गौमुखी परियोजना में,
बघनखे औचित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

गूँज है मेरी सुनो,
मेरी सुनो, मेरी सुनो,
मेरे कथन, पत्थर वचन,
उबटन से मेरी तुम बनो।
मेरे सुखद में झोंक श्रम, तुम अर्चना कर लो प्रथम,
दैदीप्य हम आदित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

लोभ- धन, सम्मान का,
सर्वोच्च उत्तम ज्ञान का,
हाँ मूल से, अवशेष से,
या पुष्टि का, स्थान का।
जिस भी कलम से मान लें, जितने मुकद्दर छान लें,
कुछ स्वार्थ हिय के कृत्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

जोड़कर जीवन में भ्रम,
जीते हैं साझे रीति क्रम,
तब तक रहें आसक्त जन,
जब तक रहेंगे तन में दम।
आहुति के मन घृत्य हैं, मानव-जनम के नित्य हैं,
अस्तित्व के साहित्य हैं
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

... हाँ पुतलियों के नृत्य हैं..
...और लोभ के ही भृत्य हैं।

Mar 26, 2008

सवेरे का सपना : स्वप्न का प्रलाप : तनाव के दिन

बहुत -बहुत दिनों से सपना सवेरे की नींद तोड़ता है,- सार में बराबर सा, - रूप हो सकता है थोड़ा बहुत ऊपर नीचे हो - हो सकता है बाहर निकले तो कुछ कम हो, पर होगा नहीं - उसमें समय अभी है - फ़िलहाल है कविता जैसा कुछ -अगले और पिछले अंतरालों का तर्जुमा -

यह नहीं होता-तो क्या होता?
कहाँ होता ? किधर होता?
किरण के फूटने से एक पल पहले,
अंधेरे में खडा कुछ देखता,
बस एक पल, जिसमें, विवादों के/ विषादों के पलायन का,
निपटता माजरा होता।
मगर कैसे ?

यूँ नहीं होता, अलग होता, अजब होता,
सजावट में, लिखावट में, करम में, आज़्माइश में,
अजायब सा धुआं होता,
बहिश्तों में..,
काश कोई फ़रिश्तों में,
मेरे नज़दीक आ कर बैठता,
और गुफ़्तगू, वरदान, वादा छोड़, अपने हाथ का ठंडा,
मेरे घनघोर अन्तिम की अनल के दरमियाँ रखता।
अमर जल बांटता।

आधी नींद चलती,
और डर ढूँढता, घर ढूँढता,
मुझसे अलग, मेरी नकल से दूर.
कितनी दूर ?
जितने लोक से अवतार,
मंथन की भरी नीहारिका के पार,
जा डर बैठता,
उस दूर मोढ़े पर।
अकेला।

खरे संताप की सीढ़ी,
चले सपने के चलने में,
कोई तहाता,
ठेल देता उस दुछ्त्ती में,
जहाँ पर कूदने के बाद भी मैं,
जा नहीं पाता,
निविड़ में भागता,
और भागता जाता,
छोर, बस एक अंगुल दूर,
केवल एक अंगुल दूर,
रह कर छूटता जाता।
पसीना फैलता।

और फिर वैसा नहीं होता,
शिथिल, बर्रौं सा मंडराता,
घूमता, घूम कर आता,
रुके सन्दर्भ को धुन बांटता,
फिर जागने का डंक दे जाता,
नहीं सपना, वही फूटी किरण,
है आँख में चुभती,
चीरती रक्त का आलस,
जीतती-हार, की हस्ती।
मिथक गाता।

तनावों में, उबासी से तनी जम्हाईयों को ले भरे,
एक और दिन आता।

Mar 21, 2008

होलिफ़ लैला

देखिये, होली में जो देस में हैं सब हल्के हो रहे हैं, आप सब को शुभ कामनाएं, हम तो अरब देश में पड़े हैं, और होली में काम पर जा रहे हैं, आप कुछ गुझिया हमारे लोगों के नाम की भी खा लीजियेगा और ... [ बाकी आप सब विद्वान् हैं ]

तो जो होली में हमारे जैसे काम पर जा रहे हैं उनका एक होली गीत -

राजा ने रानी की, सुननी सुनानी है
जोतों को रातों को, कहनी कहानी है

जब भोर हो, ताज़ा-ताज़ा तमाशे हों
कुछ कर जुटे, कहके जोशे जवानी है

जितनी उम्मीदों से, सपने बनाये हैं
उतनी बनाने में, मेहनत लगानी है

बातें बनाने से, मौसम बदलते हैं?
मौसम बदलने की, बातें बनानी हैं

अब ये मोहर्रम के, दिन तो नहीं हैं
रंग के इरादों को, होली मनानी है


पुनश्च :

बूटी ने बम-बम की,तबियत को खोला है
जिन्नों को बोतल में, वापस घुसानी है [ :-)]

Mar 15, 2008

नहीं लिखने के बहाने - ५

सिर्फ़ कोशिश है बस, हर कोशिश में लटक जाती है
एक टक देखने जाता हूँ, मेरी आँख झपक जाती है

और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है

फिर अगर चेहरे ही दिखे, उन सब मुखौटों से अलग
पहले पानी में बहे जाते हैं, और लाज भटक जाती है

मेरे पानी के ग़म जुदा है मेरे पानी के गुज़र से
रूह आतिश पे ठहरती है, एक घूँट हलक जाती है

क्या हैं वसीयत के वहम, या के विलायत के करम
ये समझ बूझ के पाने में, चढ़ी नज़्म अटक जाती है

Mar 4, 2008

हाशिये पर अल्प विराम

लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार ।

कुछ नहीं करती सिर्फ़ कविता,
न लाड़, न प्यार, न ईर्ष्या, भेद न दुत्कार
जैसे कुछ नहीं कर पाते,
अकेले के अरण्य में दहाड़ते मतिभ्रम,
डर के प्रतिहार,
डाकिये के बस्ते में, खुंसे बैरंग चिट्ठे,
पानी पी कर फैलते, क्रोध के विस्तार,
वहां तक - पहुँच ही नहीं पाते -
जहाँ के लिए चले थे?

कोशिश, सिर्फ़ प्रयास, ले लिपटाते हैं,
तुक पर कौतुक के पैबंद,
मोरपंख हैं दिखते, पर हड्डी हैं छंद
मेरुदंड, कतरे-कातर / पकड़े-
आदम-हव्वा, हूर-लंगूर रक्त, समता और सिन्दूर
और वैसे सारे जुमले,
जो एक-दो, दिन-रात मिले, मिल-जुले/ जैसे -
उबले-अंडे, चीनिया-बादाम, चना-जोर लपेटे अखबार,
छंद देखते ही रहते हैं- संयम, विवेक और सदाचार
जिनको दिव्य पैतृक उच्चारण ही, ले उड़ते हैं साधिकार,
एक समय, एक और समय, वही समय हर बार ?

बगैर चमत्कार किये जीते हैं गाभिन छंद-
हवा, मिट्टी, खुले, धुएँ और धूल के बीचों-बीच,
जैसे शर्म, दर्प, अर्पण, हिचक, अस्पष्ट, चाहत,
विराग, संदेह और सम्मान -
वितानों में आते हैं, और आते-जाते हैं लगातार
जिनको भूलते भी जाते हैं, प्रार्थी, पदाभिलाषी, महामानव-
आते अपनी तुर्रम- टोपी, मकान, ताज, सामान दिखाते, बताते हैं-
चलो अपनी दूकान बढाओ, कहीं और ज़मीन ले जाओ यार,
चलो पीढियों के यायावर, विस्थापन के रक्तबीज,
पैरों के तलवों की आग भगाते,
भाईचारों की भीड़, और इसके चुप आतंक के परम पार ?

गुरुओं के पीछे लगे आते हैं धवल चेले,
मान-अभिमान, कलमा-कलाम, ठेलम-ठेले,
लूट और लूट के कमाल के हिस्सेदार,
मद, पैसा, पैदाइश, पीं-पीं, पों-पों, इस्टाम्प, हस्ताक्षर
कतर-ब्योंत के मतलब तराशते, उचकते-उचकाते/ सहचर
ज़ुबानदराज़ कैंचियाँ, चाकू, कई हथियार
कागज़ के सादे, खड़े ही टुकड़े पर/ धार-दार,
दो-पाँव, एक आवाज़, हो पाने के पहले
एक के बाद एक, पुन अनेक/ वार
जैसे बाँट जाने की वसीयत,
लेकर जनमता है, हर एक परिवार ?

कुछ नहीं करती, सिर्फ़ कविता,
लौट आती है, वापस गोल घूम, दशाब्द, गोलार्ध, घर-संसार
कठौतियों में बिस्तरबंद मस्बूक़ सवाल, जिरह, खोज समाचार,
लइया, सत्तू, आलू-प्याज, रोटी-पराठे, पुराने गाने,
चार-दोस्त, चतुरंग, तरल तार
ब्रह्माण्ड से अणु-खंड तक लगता ही नहीं,
बदलता/ बदल पाता है/ बदल पाएगा, आदिम शोधों का खंडित व्यवहार
मानिए नग़्मानिगार, जनाब सुखनवर, कविराज, लेखक पाठक, पत्रकार
लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार
बस यही अंत है, यही है शुरू, यही बात बार-बार, हर बार

[आप क्या कहते हैं? ]

Feb 27, 2008

समझौता [ पसिंजर ?]

[ देखें - कौन पुल सा थरथराता है ?]

क्रांतिपथ के थे पथिक, जो श्रृंखलाओं में जड़े हैं
अब कहाँ जाएँ सनम, मजबूरियों के स्वर चढ़े हैं

युगों जैसे साल बीते,
भंवर से जंजाल जीते,
अव्वलों की प्रीत बोते,
परीक्षा के पात्र रीते,

भर गए जब सब्र प्याले, बुत मशीनों में गढ़े हैं
और हैं विद्रूप के प्रतिरूप, कल भर कर लड़े हैं

उजला दमकता वर्ग है,
साधन में सुख उपसर्ग है,
इतना सरल रुकना नहीं,
बस दो कदम पर स्वर्ग है,

कैसे तजें संभावना, संन्यास में तो दिन बड़े हैं
भोज भाषण बाजियाँ, सरगर्मियों के घर खड़े हैं

क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,

ऐसा नहीं होगा, तिमिर ने जेब में जेवर पढ़े हैं
स्वप्न भ्रंशों में मिले हैं, पात पर पत्थर पड़े हैं

क्रांतिपथ के थे पथिक.......

[अब न रोएँ - उदास भी न होएं - क्या होएं ?]

स्पष्टीकरण -
(१ ) यहाँ "कल" से आशय आज और कल वाले कल से नहीं बल्कि कल-पुर्जे वाले चलते पुर्जे "कल" से है ;
(२ ) इसका मुखड़ा पचीस -तीस साल पुराना घर घुस्सू पड़ा रहा है [ शायद चाणक्य सेन की मुख्य मंत्री या मन्नू भंडारी की महाभोज के बाद का] - कविता कल शाम- रात में खुली -
(३ ) सबेरे पांडे जी ने दो अचंभित करने वाली कविताएँ पढ़ाईं - (http://kabaadkhaana।blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html; http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_1798.html) पहली पर प्रतिक्रिया - इसी का hangover रहा होगा
(४ ) इसका किसी भी आज-कल की बहस से रत्ती भर ताल्लुक नहीं है - अगर लगता भी हो तो समझें मरीचिका है
(५) इस बार खीज जैसी नहीं लगती, स्वभाव से ज्यादा संयत है
(६ ) बुढौती की कठौती से निकाला मीटर है (http://kataksh.blogspot.com/2008/02/blog-post_25.html) ये कहीं की भी सूंघ हो सकती है - (दिल्ली, भोपाल, पटना लखनऊ, जयपुर, बंगलुरू.... - बम्बई छोड़ कर - उसका पता नहीं - बम्बई में इतना समय है कि नहीं अंतर्देशी / लिफ़ाफ़ा लिख के पता करना है) ;
(७) इतने अधिक स्पष्टीकरण हो गए - पक्का बुढौती की कठौती है

Feb 23, 2008

किताब हिसाब

[याने अफसाना नंबर दो ; उर्फ़ जहाज का पंछी; उर्फ़ घुमक्कड़नामा - एक]

क्या किया? क्या ना किया?, किस भीड़ से कथनी निकाली
क्यों थमे? कब चल पड़े? बहते बसर, सैलाब से अटकल मिलाली
कुछ इस तरह बस्तों ने शब्दों से वफ़ा ली

इतने इलाके घूम-चक्कर
बैठ घर दम फूलता
प्रतिरोध का ऊबा लड़कपन
पोस्टरों सा झूलता

हाँ दबदबा दब सा गया
जब लीक में बूड़े महल
पर शोर डूबे हैं नहीं
तैयार हैं, जब हो पहल

बेढब सफ़ों में मिर्च डाली, हो सका जितना नयी कोशिश निकाली
इंतजारों में खलल की फिक्र फेंकी, चुहल में कदमों से दो मंजिल जुड़ाली
हाँ इस तरह ......

यारों की भी, थी सूरतें,
ईमारतें रहमो करम
पर भागते कांटे रहे
भरते भरे बोरों शरम

कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं

जिस आँख से चकमक मिले, उनकी पकड़ धक्-धक् सम्हाली,
कुछ मौन से, कुछ फोन से, बतझड़ भरे, रहबर मिली होली-दिवाली
हाँ इस तरह ......

सब खोह में मौसम न थे ,
कुछ काम भटके जाप थे
ताने सुने बाने बुने
हिस्सों में बंट कुछ शाप थे

कुछ रंग कुछ जोबन करा
कुछ झाड़ डैने छुप धरा
छौंके हुए अफ़सोस ने
कायम सा कुछ रोगन भरा

हिम्मत भी जैसी जस मिली, वो हौसलों में नींव डाली
ताली-दे-ताली पैर पटके, ढोल पीटे, हिनहिना सीटी बजा ली
हाँ इस तरह ......

Feb 17, 2008

कोट-पीस दफ्तरी


[ उर्फ़ नौकरी की छनी खीज - - दोस्तों के शब्दों में - नग़्मा- ए- ग़म-ए-रोज़गार ]

कमख़्वाब नींद, कमनज़र ख़्वाब, डर मुंह्जबानी
ऊबे निश्वास, भटके विश्वास, उफ़ किस्से-कहानी

सुबह होड़-दौड़, शाम आग-भाग, कौतुकी खट राग,
मृगया मशक्कत, दीवानी कसरत, धौंस पहलवानी

कूद-कूद ढाई घर, बैठ सवा तीन, बिसात रंगीन
मग़ज़ घोर शोर, रीढ़ कमज़ोर, गुज़र-नौजवानी

फा़ईल खींच-खांच, नोटशीट तान, फ़र्शी गुन गान
रग-रग पे खून, खालिस नून-चून, रंग साफ़-पानी

नमश्कार-पुरश्कार, आदाब-अस्सलाम, सादर-परनाम
ठस आलमपनाह, हुकुम बादशाह, चिड़ी की रानी

Jan 27, 2008

रोटी बनाम डबल रोटी ?

थोड़ी मोहब्बत सभी पर उतरने दें
थोड़े करम चाहतों पर भी करने दें

सितारों की महफ़िल रहे आसमानी
ख़ुदा बंद जड़ को, ज़मीं से गुज़रने दें

बूंदों के रिसने को रोकें नहीं बस
सागर रहें, अंजुरी भर दो भरने दे

जब छूट पाएं वो फ़ाज़िल सवालों से
बैठक से बाहर, नज़र चार धरने दें

नर में नारायण, क्या ढूंढें मरासिम
का़फ़िर सनम, बुत-परस्ती तो हरने दें



खुलासा :
माना कि हमारे "बच्चे" कहीं पसंद कहीं नापसंद हैं
दोस्तों ने बात जो कही, हम ख़ुद भी रजामंद हैं
पर रेशम कहाँ से लाएं? कि हम कातते कपास हैं
अपने समय, जेबों, जिगर में यही छुट्टे छंद हैं

स्वागत एक बार फिर [:-)]


Jan 26, 2008

शब्द बौने

शब्द बौने
पायलों में रुन्झुने
ईख के गंडे चुने
हैं बड़े नटखट, सलोने
शब्द बौने

शब्द बौने
ले उडे तारे, चमाचम
चाँद, मारे आँख हरदम,
साज ताजों के बिछौने
शब्द बौने

शब्द बौने
कौंधते बिल्लौर घन
जोडें जुगत जादू जतन
पकड़ते कुर्तों के कोने
शब्द बौने

शब्द बौने
खेलते खिलते लड़कते
कात बातों को जकड़ते
क्यों लगे इस ख्वाब रोने
शब्द बौने

शब्द बौने
एक दिन साधन बनेंगे
आसमां आँगन बनेंगे
पर अभी छोटे हैं छौने
शब्द बौने

शब्द बौने
बाज क्यों ताने निगाहें
आस्था आगे की राहें
प्रार्थना ना जाए सोने
शब्द बौने

Jan 18, 2008

घुमक्कड़नामा -शून्य

टहलते,टहलते, गमक गुनगुनाते, रास्ते चमकते, चमक रूठ जाते
लरजते बरजते, खयालों में आते, रातों में छपते, छपक टूट जाते

बहानों से किस्से, गुमानों के मंज़र
तरीके बदलते रहे ख़ास अवसर
सलीके सुलझते अगर चैन पाते
वहीं आ गए इस सहर, घूमफिरकर

रिझाते ज़हन को कहीं थाम छाते, जहाँ बारिशों के से परिणाम आते,
अगरचे-मगरचे पहर भूल जाते, कमर कस के साथों में गोता लगाते

कहीं झाड़ झंखाड़ रखते बसाते,
वहाँ बाग़ बागों कनातें बिछाते
खटोले जगा कर, किताबें सजा कर
अकस्मात चलने के वाहन बनाते

करीने से बक्से में कपडे तहाते, ताले की चाभी गले में झुलाते
हथेली उठा कर, हवा में घुमाकर, अकल से सफर के बहाने बजाते

कम-सख्त मौसम, कहाँ रोक पाए
चलते चले बात बोले बुलाये
जहाँ भी रुके, वक्त छोटे हुए
वहां कुछ नए और सम्बन्ध आए

बगल के मकानों की घंटी बजाते, मुसकते नमस्कार कहते कहाते
तलब रोज़ रफ़्तार फ़िर ताक धरते, थिरकते थकाते शराफत उठाते

धड़कते कंगूरों में जगते धतूरे
काहिल, कलंदर, जाहिल, जमूरे
बड़े नाम कामों के स्वेटर बनाते
पड़े ख़त किताबत रहे सब अधूरे

किसी नाम अपनी पिनक दिल लगाते, कहीं बोतलों में खटक बैठ जाते
सरी शाम रोशन मजारों से तपकर, उमस दिल्लगी की पसीने बहाते


उपसंहार : (१) इस पोस्ट का जन्म मनीष के ब्लॉग ( http://ek-shaam-mere-naam।blogspot.com/2008/01/blog-post_15.html) में टिपियाने के दौरान हुआ (२) बहुत मन था कि " जेबों में चिल्लर खनकते बजाते,..." प्रयोग करूं लेकिन वो यूनुस का कॉपी-राईट है इसलिए फिर कभी (३) पिछली पोस्ट की हौसलाअफजाई सर आंखों पर

Jan 15, 2008

एक कविता लिखने की कविता

चल-चल, निशा की सोच में, मानव जगाले, चल
आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल

दीखे दाख हैं दिन भर
खड़े गल्पों के रेती घर
तमन्ना की रसीदें तम
नयन भर मील के पत्थर

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन

द्वार दर खोल दे, खुल-खुल के हंसले, मुस्कुराले, चल
आ चल ... ......

दिन-कर के थके हारे
बसों ट्रेनों से भर पारे
भरे झोले में सच बावन
सम्हारे घर सुपन सारे

बैठ कर साँस भर सुस्ता
अभी काबिल बहुत रस्ता
पोंछ दे भ्रम की पेशानी
सहज जंजीर भर बस्ता

ठहर तब-तक, तनिक शब्दों से अपने, बदल पाले, चल
आ चल ... ......

सरल मसिगंध हो कर बढ़
अगम सम्बन्ध की नव जड़
उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़

लिखे धारों में, नावों में
सुप्त बदरंग भावों में
बिछे फाजिल किनारों से
उन्हीं उन सब बहावों में

डुबा दिल, दम लगा, दम ख़म बढ़ा, मन आजमा ले, चल
आ चल ... ......

Jan 6, 2008

राम राज्य (१९४६ में लिखी एक कविता )

६ जनवरी २००२, ६ वर्ष पहले, बब्बा (पिता, श्री जगदीश जोशी ) ने अपना यहाँ का सफर समाप्त किया था । एक भरपूर तेज, उत्साह, उमंग, संवेदना, संघर्ष, आवाज़, यायावरी और वैसे ही सारे संवादों को जीने के बाद । संताप से नही वरन उनकी पूरी लगन से जी हुई ज़िंदगी और जिजीविषा के मान, बतौर अनुष्ठान, आज उनकी पुरानी कविता यहाँ लगा रहा हूँ । इसलिए कि एक तो आपको उनसे मिलाने का इससे अच्छा बहाना न मिलेगा और दूसरे कविता चाहें है पुरानी - संदर्भ से साझी है । १९४६ में उनकी उमर बीस को छूती सी होगी । २००८ में मैं बयालीस का हूँ, कसम खाके कह सकता हूँ कि इस तरह के भाव या शब्द विन्यास पकड़ पाऊँ तो भाग्य मानूं । इस ब्लौग का "बकौल" नाम बाविरासत है ( इस नाम से वे देशबंधु और आज में लिखते थे ) । बब्बा बहुआयामी शख्सियत थे । हम बच्चों ने, बच्चों के नज़रिये से देखा । सार्वजनिक व्यक्तित्व होने के हम से ज्यादा जानने वालों की कमी न थी ( अगर कविता अच्छी लगे तो साईड में "प्रेरणा और अनुराग" पढें ) । प्रस्तुत है १९४६ की - उसी वर्ष रीवा राज्य कवि सम्मेलन में प्रथम स्थान प्राप्त - कविता । यह कविता उनकी २००२ में संकलित "मिट्टी के गीत" से है जिसके प्रकाशक हैं विभोर प्रकाशन इलाहाबाद (थोडी लम्बी कविता है) - सधन्यवाद - मनीष

शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

कुसुमित जीवन के मधुर स्वप्न, लहराते हैं मधुरिम बयार
वृक्षाली में गाती श्यामा, डालें झुकतीं लै मृदुल भार

कोमल शिरीष की कोंपल भी, नर्तन में आज हुई उन्मन
नीलम के पंखों में शोभित, नूतन पराग के से जलकण

कुछ मीठी मीठी सी फुहार, सिहरन उफ़ कैसी यह पीड़ा
उन्मद कपोल के मन्मथ के, लेखा ही यह कैसी ब्रीड़ा

पदचाप मौलिश्री के परिमल में मिस, वसुधा पर धर जाते
जाने क्यों से अनजाने में, सीधे पादप भी हिल जाते

शोभा की प्रतिमा सी वन में, यह कौन अरे जाती सीता
पति की वरधर्मक्रिया जिसने, स्थावर जंगम का मन जीता

छोड़ा जिसने निज राम-राज्य, वह जाता युग का सेनानी
उस सेनानी के साथ अरे, जाती जन-जन की कल्याणी

निर्वासित हाँ निर्वासन ही, तो पित्र प्रेम है मूर्तिमान
पित्र-इच्छा के आगे जग का, सारा वैभव रजगण समान

हाँ छोड़ दिया घर का वैभव, जग का वैभव पद तल आया
उस पार ब्रम्ह के पीछे ही, माया ने अपना पथ पाया

युग की समाधि में आज मौन, वह नव्य साधनामय विराग
उस निर्वासित के धनुस्वर से, अब भी कंपते हैं शेषनाग

पर आज लालसामय जीवन, विषयों की सान्धें अनविभाज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

आशाओं के स्वर्णिम विहंग, कूके सरयू के कूलों पर
कोकिल भी भरती अपना स्वर, सुरमित डालों के झूलों पर

तट पर क्यों आँखें ठिठक रहीं, मृग सिंह साथ पीते पानी
केकी के साथ केलि रत सी, कोकिल क्या करती मनमानी

खाटें अमराई के नीचे, ग्रामीण जहाँ लेते बयार
नवयजन धर्म की रेखा भी, नभ के उर में करती विहार

रति सी ग्रामीण नवोढ़ायें, पनघट पर गगरी ले आईं
कुछ अरहर के खेतों में जा, क्रीडा को करने हुलसाईं

हल लिए कृषक के दल आते, गज की चालें भी शर्मातीं हैं
गर्दन की घंटी के स्वर में, कुछ और शब्द भी लहरातीं हैं

हाँ इन गायन घंटी स्वर में, कुछ और शब्द लहराते हैं
जब अन्तरिक्ष में वेदों के, कुछ महामंत्र टकराते हैं

कुछ दूर खेत में रही दूब, को चरने गायें जाती हैं
अयनों के भार वहन करने, में ही मानो थक जाती हैं

उनके आगे करते किलोल, बछड़े मृग शावक से जाते
माँ के दुलार की धमकी दे, अपने में ही कुछ कह जाते

है धर्म न्याय मानव अपनी, रखता है रे अर्जित सत्ता
मानव के स्वर के बिना नहीं, हिल सकता धरती पर पत्ता

वह राम अरे युग का मानव, मानव का ही तो साम्राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

वह राम अरे हाँ स्वप्नलोक, की अब जो विगत कहानी है
क्यों रामराज्य का नाम आज, लेते आंखों में पानी है

वह राम और वह राज्य और, वे मानव सब धुंधली रेखा
अब का मानव क्या जान सका, जिसने शोषण का युग देखा

यदि शोषण ही केवल होता, तब भी संतोष रहा भारी,
पर शोषित भी शोषण करता, उल्टी देखी दुनिया सारी

कहते इतिहास बताते हैं, मानव का गिरना ही गुलाम
पर आज गुलामों का गुलाम, बोलो मानव का कौन नाम

कवि तूने देखा राज्य और, आंखों से जौहर भी देखा
दिल्ली को रोटी ले जाते, राणा को भूखे भी देखा

देखा तूने जो सह न सका, मुग़लों की खर तलवारों से
जब छाती पर रानी चढ़ती, खंजर ले कर मीनारों से

हो याद मुझे आई मीना, उसकी भी एक कहानी है
पर देख आज की मीना को, आंखों में आता पानी है

हे लुटा रही माता बहने, अपनी अस्मत हाटों में
रुपयों से मोल हुआ करता, सुन्दरता बिकती बाटों में

दिल चाक हुआ इन गुनाहगार, आंखों ने है क्या-क्या देखा
पद के हित मानव ने अपनी, माता का सिर कटते देखा

कवि सुनो आज हिमगिरि सुनले, सुनलें विजयों की मीनारें
यह महल सुने ऊंचे - ऊंचे, सुनलें ज़ुल्मी की तलवारें

सुनलें जो न्याय बनाते हैं, सुनलें जो मानव को खाते
जो आज धर्म की आड़ लिए, अपने को ऊंचा बतलाते

जिनने छीने मां-बहनों के, वक्ष-स्थल से जा वसन हैं
कहना उनसे वचन नहीं ये, महाकाल के अनल दशन हैं

अरे बोतलों की छलकारें, नुपुर की झंकारें भी
मेरी निर्वसना माँ के, ज़ंजीरों की ललकारें भी

रूप दिया जिसने मरघट का, शस्य श्यामला को अविकल
जिनने मानव को ठठरी में, भूसाभर कर है किया विकल

जिनने माता के लालों पर, संगीनें भी चलवाई हैं
जिनने बेतों से जेलों में ,चमडियाँ बहुत खिचवायीं है

वे संभल चलें युग की वाणी, करवट लेकर हुंकार उठी
सोई नागिन भी निज संचित, विष से सहसा फुंकार उठी

उठ पडा अरे पीड़ित मानव, छीनेगा तुमसे मनुज राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
_____________________________

Jan 2, 2008

दोपहर का गान

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर

कमबख्त कम, पैदा हुआ, सीखा हुआ, वैसा नहीं
जिस रंग में, बदरंग था, उस ढंग में, सांचा कहर

उड़ने लगा, चिढ़ने लगा, इतरा गया, धप से गिरा
अब मौज को, क्या दोष दूँ, मेरा धुआं, मेरा ज़हर

आंधी चली, पानी गिरा, गिरता गया, कोसों गहर
तुम बोल थी, मैं मोल था, थी बीच में, ये दोपहर

Dec 31, 2007

अरब, शंख, पद्म शुभकामनाएँ

एक जाता हुआ साल - ३ बहुरि थके देसी शेर - अरब, शंख , पद्म शुभकामनाएँ - एक गपोड़्शंख


वहां सो चुकी है रात, या मौसम सिंदूरी है
तुम्हारे और मेरे बीच, बस बातों की दूरी है

आधे से अधूरे छू गए, थोडी सी बक-बक में
जो रह गए वो मनचले फेहरिस्त पूरी है

इस साल की मीयाद का दम ख़म खतम सा है
नए साल खुश रहना बहुत .. बहुत .. ज़रूरी है


शुभ कामनाएं २००८ की - मां, कार्तिक, किसलय, मोना, मनीष

Dec 28, 2007

फुग्गों की बिरादरी

क्या अभी भी यार तुम, शामें उड़ाते हो ?

चौंकते हो रात में
परछाईयों को बूझते हो,
पलट कम्बल मुंह उलट
लम्बाईयों में ऊंघते हो,
दिन सुने किस्से कहानी
नित अकेले सूंघते हो,
और फ़िर तख्ता पलट कर
चोर मन में गूंधते हो

क्या गुल्लकों में डर डरे नीदें जगाते हो ?
क्या अभी भी ....

तुम, तुम के आने से
अभी कुप्प फूलते हो क्या,
तभी तो सज संवर पुर जोर
मिस्टर कूदते हो क्या,
फुदक कर बात, बातों में
शरम से सूजते हो क्या,
और फ़िर तंज़ तानों से
तमक कर रूठते हो क्या,

क्या हक्लकाकर, मिचमिचा आँखें बनाते हो ?
क्या अभी भी .....

चिरोंजी छीलते हो
टेसुओं से रंग करते हो,
दबा कर पत्तियों को
तितलियों को तंग करते हो,
फकत झकलेट मौकों में
जबर की जंग करते हो,
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो,

तमातम फूँक कर सेमल के लब, फाहे बनाते हो ।
....
कहो न यार तुम इस दम तलक, कंचे लुकाते हो ।
....
कहो तो यार उन सीपों से तुम, कैरी छिलाते हो ।
....
फिर कहो अनकही सांसों से तुम, फुग्गे फुलाते हो ।

कहो ....


[प्यादे को पहलवान के .. आस पास ... बनने में अभी बहुत .. बहुत .. बहुत .. वक़्त है - (लेकिन लिखता कौन कमबख्त है सूरमा बनने के लिए) - उम्मीद से ज्यादा अपेक्षाओं( http://tarang-yunus.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html )का तहेदिल ... ]

Dec 25, 2007

बुन कर

सागरों में सुर, नहीं स्वर, झर रहा है।
आगतों के बीच में घर कर रहा है।

वेदना का मान है क्या ?
धुन बुना सदगान है क्या ?
शब्दशः नश्वर समय में ,
अंततः अभिमान है क्या ?

फिर समर्पण तोलता है ,
अनमना तह खोलता है ,
सर पटकता है वहीं पर ,
धुर उसी मुँह बोलता है ,

अंतरों में मींज कर, नश्तर रहा है।

सृजन का उन्माद है यह,
मगन का संवाद है यह,
निशा निश्चित छिन्न कीलित,
प्रमद का अवसाद है यह,

अंतरालों के शिखर से,
बंद तालों की उमर तक,
बह लगे रेलों के संदल,
स्याह प्यालों के पहर तक,

अमृतों को दंश दे कर, तर रहा है।

Dec 20, 2007

ढलते हुए/ फिर सम्हलते ...

उम्र किस-किसकी, यूं ही सुल्तान होती है।
हड्डी घिसती है, तो ही अरमान होती है।

बेलें चढ़ती-गिरती, हैं दफन दब जाती है।
कोयला बनती है, जो ही जलान होती है।

तार जुड़ते हैं तो तमाशे भी मिल पाते है।
बात जो सच लगे, वो ही जबान होती है।

आ सलाम दे सफर, ये घुप रुकी हवाएँ हैं।
समय की भाप ले, सो ही सोपान होतीं है।

भर समेट तारे हैं, यूं के नमक पारे हैं।
बूँद उट्ठे साथी, तो ही आसमान होती है।

कौम में, अमन-इंक़लाब में, दरारें सोहबत हैं।
फरेब अपनी किस्मत, यूं ही बयान होती है।

[ साभार - उन सब के नाम जिनसे पिछले एक महीने में पढ़ के बहुत नया जाना / सीखा - लुत्फ़ उठाया - इस नवेली दुनिया में कदम बढाया - उम्मीद से कई गुना पाया और उन सब के नाम भी जो आए / पधारे - हौसलाअफजा़ई कर गए / मंडराए - आशाओं से भी ज्यादा पीठ ठोंक के नंबर दे गए - मनीष ]

Dec 18, 2007

चलोगे ?

आओ चलो ...

आओ चलो बादल को खो आएं।

इमली के बीजों को,
सरौते से छांट कर,
खड़िया से पटिया में,
धाप-चींटी काट कर,

खटिया से तारों को,
रात-रात बात कर,
इकन्नी की चाकलेट,
चार खाने बाँट कर,

संतरे के छीकल से आंखो को धो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।

धूल पड़े ब्लेडों से,
गिल्ली की फांक छाल,
खपरैल कूट मूट,
गिप्पी की सात ढाल ,

तेल चुपड़ चुटिया की,
झूल मूल ताल ताल,
गुलाबी फिराक लेस,
रिब्बन जोड़ लाल लाल ,

चमेली की बेलों में, अल्हड़ को बो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।

कनखी की फाकों में,
फुस्फुसान गड़प गुडुप,
थप्पडा़ये गालों में,
सूंत बेंत फड़क फुडु़क,

चाय के गिलासों को,
फूँक फूँक सुड़क सुडुक,
चूरन को कंचों को,
जेब जोब हड़क हुडुक,

मुर्गा बन किलासों में लाज शरम रो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।

खिचडी़ के मेले की,
भीड़ के अकेले तुम,
चाट गर्म टिकिया की,
तीत संग खेले तुम,

चौरसिया चौहट्टे के,
पान-बीड़ी ठेले तुम,
गिलाफ में लिहाजों के,
बताशे के ढेले तुम,

जलेबी के शीरे से दोने भिगो आएं
आओ चलो बादल को खो आएं।
आओ चलो ...

[ धाप-चींटी :- ज़मीन में खाने बना कर खेलने का खेल / धाप-चींटी- चींटी -धाप-चींटी -धाप ; गिप्पी :- पिट्ठू / गिप्पी गेंद / 7 tiles ; खिचडी़ :-मकर संक्रान्ति; चौहट्टा - रीवा का बाजारी इलाका ]